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वैशेषिकसूत्र और उसकी टीकाओं की परम्परा वैशेषिकसूत्र के ऊपर प्रशस्तपादकृत भाष्य से पहिले की टीका उपलब्ध नहीं हैं। रावणकृत भाष्य एवं भारद्वाज कृत वृत्ति की बातें सुनने में आती हैं, किन्तु वे अपने स्वरूप में उपलब्ध नहीं हैं। ग्रन्थान्तरों में उनकी चर्चा अवश्य मिलती है । प्रशस्तपादकृतभाष्य के द्वारा सभी सूत्रों के अर्थ प्रकाशित नहीं होते । अतः शङ्कर मिश्र कृत 'उपस्कार' टीका के द्वारा ही इतने दिनों तक सूत्रों के प्रसङ्ग में जो कुछ भी कहा जाता रहा है । इधर दरभङ्गा विद्यापीठ से अज्ञातनामा किसो दाक्षिणात्य विद्वान् की टीका प्रकाशित हुई है। उस ग्रन्थ के सम्पादक उसे उपस्कार से प्राचीन और किरणावली से अर्वाचीन मानते हैं । गायकावाड़ औरियण्टल सिरीज से अभी चन्द्रानन्द नाम के किसी विद्वान् की एक वृत्ति निकली है । पं० श्रीजयनारायण भट्टाचार्य और पं. श्रीचन्द्रकान्त तर्कालङ्कार की टीकायें प्रायः इसी शताब्दी की हैं। सूत्र की संख्याओं के सम्बन्ध में प्रथमोक्त तीन टोकाओं में काफी अन्तर है। शेष दोनों अर्वाचीन टीकायें इस के सम्बन्ध में भी शङ्करमिश्र के अनुयायी हैं। उपस्कार के अनुसार सूत्र की संख्या है ३७० और मिथिला विद्यापीठवाली पुस्तक के अनुसार ६ अ० के पहिले आह्निक तक सूत्रों की संख्या ही ३२४ है । इस पुस्तक में आगे का अंश नहीं है, क्योंकि टीका उतनी ही उपलब्ध थी। अगर इसके आगे के उपस्कारानुयायी सूत्रों को जोड़ देते हैं तो उनकी संख्या ३५३ तक ही पहुँचती है। इस प्रकार सूत्रों के सम्बन्ध में मतान्तर चले आ रहे हैं। स्थिति यह मालूम होती है कि प्रशस्तपाद को भाष्यरचना के बाद उसके सौष्ठव के कारण सूत्र की तरफ से सबका ध्यान ही हट गया और वैशेषिकदर्शन के सम्बन्ध में जितने भी कुछ विचार हुए या ग्रन्थ-रचनायें हुईं सभी प्रशस्तपादभाष्य की आधार मानकर ही होने लगी। मिथिला विद्यापीठ से और बड़ौदा से प्रकाशित पूर्वोक्त वैशेषिकसूत्र की दोनों पुस्तकों के छपने के बाद एक बात और सामने आयी है। उन दोनों ही पुस्तकों में "धर्मविशेषप्रसूतात्" ( १-१-३) इत्यादि उपक्रम सूत्र नहीं है। किन्तु धर्मनिरूपण की प्रतिज्ञा और लक्षण लिखने के बाद हठात् 'पृथिव्यापस्तेजो वायुः' (१-१-५ ) इस सूत्र के द्वारा पदार्थों के विभाग से जो असङ्गति की आपत्ति आती है, उसको उन दोनों टीकाकारों ने अपनी अपनी टीका में जिस युक्ति से समर्थन किया है, वह युक्ति 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि सूत्र के द्वारा कही हुई युक्तियों से अधिक भिन्न नहीं है। इस प्रसङ्ग में दो ही बातें संभव जान पड़ती हैं--(१) जिन लोगों ने 'धर्मविशेषप्रसूतात्' इत्यादि को सूत्र नहीं माना है, उन लोगों के हाथ में जो सूत्रावली आई उसके मूल लेखक से प्रमादवश उक्त सूत्र छूट गया हो और उस के बाद से उसी सूत्रावली का प्रचार उस क्षेत्र में हो गया हो । अथवा (२) धर्मव्याख्या की प्रतिज्ञा और लक्षण कहने के बाद हठात् पदार्थ-निरूपण करने से जो असंगति आती है, उसकी पूर्ति किसी विद्वान् ने अपनी सूत्रपाठ की पुस्तक में “घर्मविशेषप्रसूताद्' इत्यादि शब्दों के द्वारा टिप्पणी रूप में कर दी हो। आगे उस पुस्तक के आधार पर लिखनेवाले किसी दूसरे लेखक ने भ्रमवश उस टिप्पणी को सूत्र समझ कर पृथक् सू त्र के रूप में लिख दिया हो । भ्रम और प्रमाद इन दोनों की संभावनाओं में से प्रकृत में किस संभावना की कल्पना में लाघव और स्वारस्य है, इसे पण्डितगण विचार कर देखें।
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