Book Title: Prashastapad Bhashyam
Author(s): Shreedhar Bhatt
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir करके यह 'वैशेषिक' शब्द निष्पन्न है। अर्थात् नैयायिकादि पदार्थों की षोडशादि संख्याओं को स्वीकार कर प्रमाणादि जिन पदार्थों को स्वीकार किया है, वे सभी वैशेषिकों से स्वीकृत सात पदार्थों में ही 'निरवशेष' होकर अन्तर्भूत हो जाते हैं। कोई भी अन्तर्भूत होने से अवशिष्ट नहीं रहते, अतः इस दर्शन का नाम वैशेषिक-दर्शन' है। (४) 'विशेषणं विशेषः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षणपरीक्षादि के क्रम से पदार्थों का प्रतिपादन ही प्रकृत में 'विशेष' शब्द का अभिप्रेत अर्थ है । उक्त प्रतिपादन रूप कार्य जिस शास्त्र के द्वारा हो वही 'वैशेषिकदर्शन' है। इस प्रकार से व्याख्या करनेवालों का अभिप्राय है कि सांख्य, वेदान्तादि दर्शनों में मोक्ष के लिये साक्षात् उपयोगी आत्मा एवं अन्तःकरणादि पदार्थ और सृष्टितत्त्व प्रभृति ही विशेष रूप से विवेचित हुए हैं। इस से जगत् के और पदार्थों के तत्त्व यथावत् परिस्फुट नहीं होते। आत्मतत्त्व को समझने के लिये भी आत्मा के सजातीय और विजातीय दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है। अतः आत्मा और उन के सजातीय और विजातीय सभी पदार्थों की ओर 'विशेष' रूप से मुमुक्षुओं की दृष्टि आकृष्ट करने के कारण ही इस दर्शन का नाम वैशेषिकदर्शन' है। (५) प्रकृत 'विशेष' शब्द के 'भेद' और विशेष गुण' दोनों ही अर्थ हैं। इन दोनों अर्थों के साथ सम्बद्ध जो दर्शन वही 'वैशेषिकदर्शन' है। वेदान्तदर्शन के अनुसार आत्मा में भेद और विशेष गुण ये दोनों ही नहीं हैं। इस दर्शन में आत्माओं में परस्पर भेद और ज्ञान, इच्छा प्रभृति विशेष गुण दोनों ही स्वीकृत हैं। सांख्यदर्शन में आत्माओं में परस्पर भेद यद्यपि स्वीकृत है, फिर भी वे आत्मा में विशेष गुण की सत्ता नहीं मानते । तस्मात् आत्मा में उक्त भेद और विशेष गुण इन दोनों 'विशेषों' का प्रतिपादन करते हुए महर्षि कणाद ने इस नाम के द्वारा यह सूचित किया है कि वेदान्त और सांख्यदर्शन से यह दर्शन गतार्थ नहीं है।' (६) 'विशेष' शब्द का प्रयोग परमाणु अर्थ में भी होता है, तदनुसार परमाणु की सत्ता और तन्मूलक सृष्टि जिस दर्शन में स्वीकृत हो वही वैशेषिकदर्शन' है। कुछ विद्वानों की ऐसी भी सम्मति है । औलुक्यदर्शन महर्षि कणाद किसी उलूक नाम के महर्षि के वंश में थे, अतः उनका 'औलूक्य' नाम भी था। इसी कारण कणाद-निर्मित दर्शन को 'औलूक्यदर्शन' भी कहते हैं। काणाददर्शन महर्षि कणाद के द्वारा रचित होने के कारण इसे काणाददर्शन भी कहते हैं । १. टिप्पणी--ये पाँच व्युत्पत्तियाँ म० म० विद्वद्वर श्रीयुत कालीपदतर्काचार्य महोदय के द्वारा सम्पादित सूक्ति और उनकी टीका के साथ संस्कृतसाहित्यपरिषद् से प्रकाशित 'प्रशस्तपादभाष्य' की भूमिका से ली गयी हैं। अतः उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। For Private And Personal

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