Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 13 की लोपावस्था में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को कभी 'आ, की प्राप्ति होती है तो कभी 'ए' की प्राप्ति होती है; यों नित्य 'दीर्घता का अभाव होने से अकारान्त शब्दों को नहीं लेते हुए इकारान्त अथवा उकारान्त शब्दों के लिए ही दीर्घता का विधान 'नित्य रूप से किया गया है। जैसेः- वृक्षान् पश्य-वच्छे पेच्छ अर्थात् वृक्षों को देखो। इस उदाहरण में 'वच्छ' अकारान्त शब्द में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' का लोप हुआ है परन्तु अन्त्य 'अ' को 'आ' नहीं होकर 'ए' की प्राप्ति हुई है; परन्तु तदनुसार अकारान्त शब्दों में नित्य 'दीर्घता' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। यों इकारान्त और उकारान्त शब्दों में 'शस्' प्रत्यय के लोप होने पर नित्य दीर्घता के विधान की स्थिति को समझ लेना चाहिये।
सूत्र-संख्या ३-१२ के विधानानुसार यद्यपि यह सिद्ध हो जाता है कि द्वितीया-विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'शस्' की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति होती है; परन्तु पुनः सूत्र-संख्या ३-१८ से उसी तात्पर्य की विशेष संपुष्टि करने के लिए और अकारान्त शब्दों में वैकल्पिक रूप से होने वाली दीर्घता का व्यवधान करने के लिये इस सूत्र (३-१८) का निर्माण किया है। 'दीर्घता की नित्यता' रूप लक्ष्य-विशेष के योग को प्रदर्शित करने के लिये इस सूत्र का निर्माण करना पड़ा है। दूसरा प्रबल कारण यह है कि सूत्र-संख्या ३-२२ के विधानानुसार 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर पुल्लिंग शब्दों में ‘णो' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार यदि द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'णो' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाती है तो ऐसी अवस्था में शस्' प्रत्यय की लोप स्थित नहीं मानी जायेगी एवं लोप-स्थिति का अभाव होने पर अन्त्य हस्व स्वर को भी दीर्घता की प्राप्ति नहीं होगी। इस प्रकार निश्शंक और स्पष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये ही तथा नित्य 'दीर्घता' के संबंध में उत्पन्न होने वाली शंकाओं के निवारण के लिये ही सूत्र-संख्या ३-१२ के अतिरिक्त सूत्र-संख्या ३-१८ का निर्माण करना भी आवश्यक तथा उचित समझा गया है।
गिरीन्:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरी और गिरिणो होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (गिरीन्=) गिरिणो में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'गिरि में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर ‘णो' प्रत्यय की ओदश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप गिरिणो भी सिद्ध हो जाता है। __ बुद्धी:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप से सिद्ध हो जाता है।
तरून:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप तरू और तरुणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (तरून्-) तरुणो में सूत्र-संख्या ३-२२ से मूल शब्द 'तरू' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तरुणो भी सिद्ध हो जाता है।
धेनू:- संस्कृत द्वितीयान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणू होता है। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राप्त प्रत्यय का लोप
और ३-१८ से प्राप्त प्रत्यय 'शस्' का लोप होने से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर धेणू रूप सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ':- रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'वच्छे':-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है।३-१८।।
- अक्लीबे सौ ॥३-१९।। इदुतो क्लीबे नपुसंकादन्यत्र सौ दी| भवति ॥ गिरी । बुद्धी । तरू । धेणू। अक्लीब इति किम्। दहिं।
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