Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 397
________________ 364 : प्राकृत व्याकरण उनकी बुझा देगा अथवा अपने खुद के (लड़ते हुए शरीर में से निकले हुए) खून से उन्हें बुझा देगा, इसमें संदेह करने जैसी कोई बात नहीं है। इस गाथा में कुतः' के स्थान पर आदेश-प्राप्त रूप 'कउ' का प्रयोग किया गया है।।१।।। (२) धूमःकुतः उत्थितः-धूमु कहन्तिहु उट्ठिअउ-धूआँ कहाँ से-(किस कारण से) उठा हुआ है? इस गाथा चरण में 'कुतः' के स्थान पर आदेश प्राप्त द्वितीय रूप 'कहन्तिहु' का उपयोग किया गया है।।४-४१६।। ततस्तदोस्तोः ॥४-४१७।। अपभ्रंशे ततस् तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति।। जइ भग्गा पारक्कड़ा, तो सहि ! मज्झु पिएण।। अह भग्गा अम्हहं, तणातो तें मारिअडेण॥१॥ अर्थः-'यदि वैसा है तो-अथवा उस कारण से है तो इस अर्थ में संस्कृत भाषा में 'ततः' अव्यय का प्रयोग किया जाता है; इसी 'ततः अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'तो' अव्यय रूप की आदेश प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तब तो' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'तदा' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है; इस 'तदा' अव्यय के स्थान पर भी अपभ्रंश भाषा में 'तो' अव्यय रूप की ही आदेश प्राप्ति समझनी चाहिये। यों 'ततः' और 'तदा' दोनों ही अव्ययों के स्थान पर एक जैसे ही 'तो' रूप की आदेश प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:-ततस्तदा वा जिनागमान् द्योतय तो जिण-आगम जोइ-यदि वैसा है तो अथवा तब तो जैन-शास्त्रों को देख। इस उदाहरण में 'ततः और तदा' के स्थान पर एक ही अव्यय रूप 'तो' की प्ररूपणा की गई है। गाथा का भाषान्तर इस प्रकार है:संस्कृत : यदि भग्नाः परकीयाः, ततः सखि ! मम प्रियेण।। अथ भग्नाः अस्मदीयाः, तदा तेन मारितेन।।१।। हिन्दी:-हे सखि ! यदि शत्रु-गण मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं; अथवा (रण-क्षेत्र को छोड़कर के) भाग गये हैं तो (यह सब विजय) मेरे प्रियतम के कारण से (ही है)। अथवा यदि अपने पक्ष के वीर पुरूष रण-क्षेत्र को छोड़ करके भाग खड़े हुए हैं तो (भी समझो कि) मेरे प्रियतम के वीर गति प्राप्त करने के कारण से (ही वे निराश होकर रण-क्षेत्र को छोड़ आये है।। इस गाथा में 'ततः और तदा' अव्ययों के स्थान पर एक जैसे ही रूप वाले 'तो' अव्यय रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४१७|| एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक-एम्व पर समाणु ध्रुवु मं मणाउ।।४-४१८।। अपभ्रंशे एवमादीनाम् एम्वादय आदेशा भवन्ति।। एवम् एम्व। पिय-संगमि कउ निद्दडी, पिअहो परोक्खहो केम्व ? मइं बिन्नी वि विन्नासिआ, निद्द न एम्व न तेम्व।।१।। परमः परः। गुणहि न संपइ, कित्ति पर।। सममः समाणुः। कन्तुजु सीहहो उवमिअइ, तं महु खण्डिउ माणु॥ सीहु निरक्खय गय हणइ पिउ पय-रक्ख-समाणु।। २।। ध्रुवमो ध्रुवुः। चञ्चलु जीविउ, ध्रुवु मरणु पिउ रूसिज्जइ काई।। होसहिँ दिअहा, रूसणा दिव्वइँ वरिस-सयाई।। ३।। मो म।। मं धणि करहि विसाउ।। प्रायो ग्रहणात्।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434