Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 369 हिन्दी:-सर्व-लावण्य-सौन्दर्य-संपन्न रमणी कुछ नवीन ही प्रकार की (आश्चर्य जनक) विष की (जहर की) गांठ है जिसके कंठ का आलिंगन यदि (अमुक) नवयुवक पुरूष नहीं करता है तो उल्टा मृत्यु को प्राप्त होता है। (जहर के आस्वादन से मृत्यु प्राप्त होती है परन्तु यह जहर कुछ अनोखा ही है कि जिसका यदि आस्वादन नहीं किया जाय तो उल्टा मृत्यु प्राप्त हो जाती है)। इस अपभ्रंश छंद में 'प्रत्युत' अव्यय के स्थान पर 'पच्चलिउ' आदेश प्राप्त अव्यय रूप का प्रचलन प्रमाणित किया है।। ३।।
(३) इतः मेघाः पिबन्ति जलं एत्तहे मेह पिअन्ति जलु इस तरफ (इधर एक ओर तो) मेघ-बादल-जल को पीते है।। इस चरण में 'इतः' के स्थान पर 'एत्तहे' रूप की आदेश प्राप्ति समझाई है।।४-४२०।।
विषण्णोक्त-वर्त्मनो-वुन्न-वुत्त-विच्च।।४-४२१।। अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेश भवन्ति।। विषण्णस्य वुन्नः। मई वुत्तउं तुहुं धुरू धरहिं कसरहिं विगुत्ताइ।। पई विणु धवल न चडइ भरू एम्वइ वुन्नउ काइ।।१।। उत्त्स्य वुत्तः। मई वुत्तउ।। वर्त्मनो विच्चः। जं मणु विच्चि न माइ।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले दो कृदन्त शब्दों के स्थान पर और एक संज्ञा वाचक शब्द के स्थान पर जो आदेश प्राप्ति अपभ्रंश भाषा में पाई जाती है, उसका संविधान इस सूत्र में किया गया है। वे इस प्रकार से है:-(१) विषण्ण-वुन्न खेद पाया हुआ, दुखी हुआ, डरा हुआ। (२) उक्त वुत्त-कहा हुआ; बोला हुआ। (३) वर्त्मन् विच्च-मार्ग, रास्ता।। इन आदेश प्राप्त शब्दों के उदाहरण वृत्ति में दिये गये है; तदनुसार उनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : मया उक्तं, त्वं धुरं इति, गलि वृषभैः (कसर) विनाटिकाः॥
त्वया विना धवल नारोहति भरः, इदानीं विषण्णः किम्॥१॥ हिन्दी:-मुझसे कहा गया था कि ओ श्वेत बैल ! तुम ही धुरा को धारण करो। हम इन कमजोर बैठ जाने वाले बैलों से हैरान हो चुके है।। यह भार तेरे बिना नहीं उठाया जा सकता है। अब तू दुःखी अथवा डरा हुआ अथवा उदास क्यों है ? इस गाथा में कृदन्त शब्द 'विषण्णः' के स्थान पर अपभ्रंश- भाषा में आदेश प्राप्त 'वुन्नउ' शब्द का प्रयोग समझाया है।।१।।
(२) मया उक्तम्-मई वुत्तउं-मेरे से कहा गया अथवा कहा हुआ। इस चरण में 'उक्तम्' के स्थान पर 'वुत्तउं' की आदेश-प्राप्ति बतलाई गई।
(३) येन मनो वर्त्मनि न माति-जं मणु विच्च न माई-जिस (कारण) से मन मार्ग में नहीं समाता है। इस गाधा चरण में 'वर्ल्सनि' पद के स्थान पर 'विच्चि' पद की आदेश प्राप्ति हुई है। यो तीनों आदेश प्राप्त शब्दों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४२१।।
शीघ्रदीनां वहिल्लादयः॥४-४२२।। अपभ्रंशे शीघ्रादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति।। एक्कु कअइ ह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि।। मई मित्तडा प्रमाणिअउ पई जेहउ खलु नाहि।।१।। झकटस्य घङ्घलः॥ जिवँ सुपुरिस तिवँ घङ्घलई, जिवँ नइ तिव॑ वलणाइ।। जिवँ डोङ्गर तिवँ कोट्टरइं हिआ विसूरहि काइ।। २।।
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