Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 411
________________ 378 : प्राकृत व्याकरण __ अर्थः-सूत्र-संख्या ४-४२६ से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-४३० तक में स्वार्थिक प्रत्ययों का वर्णन किया गया है। शब्द में नियमानुसार स्वार्थिक प्रत्यय की संयोजना होने पर भी मूल अर्थ में किसी भी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं हुआ करती है। मूल अर्थ ज्यों का त्यों ही रहता है। इस सूत्र में यह बतलाया गया है कि संस्कृत भाषा में उपलब्ध 'पनर और विना' अव्यय शब्दों में अपभ्रश भाषा के रूप में रूपान्तर होने पर 'ड' प्रत्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में अनुप्राप्ति हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'डु में स्थित 'डकार' वर्ण इत्-संज्ञक है; तदनुसार 'परर्-पुण' में स्थित अन्त्य 'अकार' की लोप होने पर तत्पश्चात् स्वार्थिक प्रत्यय के रूप 'उकार' वर्ण की प्राप्ति होकर 'पुणु' रूप बन जाता है। इसी प्रकार से 'विना' अव्यय शब्द में भी अन्त्य वर्ण 'अकार' का लोप होकर तथा स्वार्थिक प्रत्यय रूप 'उकार' वर्ण की संयोजना होने पर इसका रूप 'विणु' बन जाता है। उदाहरण क्रम से यों है: (१) ये विना पुनः अवश्यं मुक्तिः न भवति जसु विणु पुणु सिवु अवसे न होइ-जिसके बिना फिर से अवश्य ही मुक्ति नहीं होती है। इस उदाहरण में 'पुनः' के स्थान पर 'पुणु' लिखा हुआ है और ‘विना' के स्थान पर 'विणु' को जगह दी गई है। यों स्वार्थिक प्रत्यय 'डु-उ' की प्राप्ति होने पर भी इनके अर्थ में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। यों सर्वत्र समझ लेना चाहिये। गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : स्मर्यते तद् वल्लभं, यद् विस्मर्यते मनाक्।। यस्य पुनः स्मरणं जातं, गतं, तस्य स्नेहस्य किं नाम ?।।१।। हिन्दी:-जिसका थोड़ा सा विस्मरण हो जाने पर भी पुनः स्मरण कर लिया जाता है; तो ऐसा स्नेह भी प्रिय होता है; परन्तु जिसका पुनः स्मरण करने पर भी यदि उसे भूला दिया जाय तो वह 'स्नेह' नाम से कैसे पुकारा जा सकता है ? इस गाथा में 'पुनः' के स्थान पर स्वार्थिक प्रत्यय के साथ 'पुणु' अव्यय का प्रयोग समझाया है। (२) बिना युद्धेन न वलामहे विणु जुज्झें न वलाहुं हम बिना युद्ध के (सुख पूर्वक) नहीं रह सकते हैं। इस गाथा-चरण में 'विना' की जगह पर 'विणु' अव्यय-रूप का प्रयोग किया गया है।।४-४२६ ।। अवश्यमो डें-डौ।।४-४२७।। अपभ्रंशेऽवश्यमः स्वार्थे डें ड इत्येतो प्रत्ययौ भवतः। जिब्भिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नइ।। मूलि विण?इ तुबिणिहे अवसें सुक्कइं पणणइ।।१।। अवस न सुअहि सुहच्छिअहि।। अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध अवश्यम्' अव्यय का अपभ्रंश भाषा में रूपान्तर करने पर इसमें 'स्वार्थिक' प्रत्यय के रूप में 'डे और ड' ऐसे दो प्रत्ययों की संयोजना हुआ करती है। स्वार्थिक प्रत्यय 'डे और ड' में स्थित वर्ण इत्संज्ञक होने से 'अवश्यम् अवस' में स्थित अन्त्य 'अकार' वर्ण लोप हो जाता है और तत्पश्चात् अवस्थित हलन्त 'अवस्' अव्यय में 'ए और अ' की क्रम से प्राप्ति होती है। जैसे:- अवश्यम्=अवसें और अवस-अवश्य-जरूर-निश्चय। उदाहरण के रूप में प्रदत्त गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : जिर्केन्द्रियं नायकं वशे कुरूत, यस्य अधीनानि अन्यानि।। मूले विनष्टे तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि।।१।। हिन्दी:-जिसके अधीन अन्य सभी इन्द्रियाँ रही हुई हैं ऐसी नायक-नेता-रूप-जिह्वा-इन्द्रिय को अपने वश में करो; (क्योंकि इसको वश में करने पर अन्य सभी इन्द्रियाँ निश्चय ही वश में हो जाती है)। जैसे कि 'तुम्बिनी' नामक वनस्पति रूप पौधे की जड़ नष्ट हो जाने पर उसके पत्ते तो अवश्य ही सूख जाते हैं-नष्ट हो जाते हैं। इस गाथा में 'अवश्य' अव्यय के स्थान पर 'अवसें' रूप का प्रयोग करके इसमें 'डे-ऐं' अव्यय की स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में सिद्धि की गई है। 'अवस' का उदाहरण यों हैं: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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