Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 424
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 391 हिन्दी:-हे सखि ! (देखो यह) भँवरा चम्पक-पुष्प में प्रविष्ट हुआ है; यह इस प्रकार से शोभायमान हो रहा है कि मानों इन्द्रनील नामक मणि सोने में जड़ दी गई है। यहाँ पर पाँचवें शब्द 'जणि' के प्रयोग को प्रदर्शित किया गया है।। ५।। (६) संस्कृतः-निरूपम-रसं प्रियेण पीत्वा इव-निरूवम-रसु पिएं जणु प्रियतम पति के द्वारा अद्वितीय रस का पान करके इसके समान। यहाँ पर 'इव' अर्थ में छठा शब्द 'जणु' लिखा गया है।।४ - ४४४।। लिंगमतन्त्रम्।।४-४४५।। अपभ्रंशे लिङगमतन्त्रम व्यभिचारि प्रायो भवति।। गयकुम्भई दारन्तु। अत्र पुल्लिंगस्य नपुंसकत्वम्।। अब्भा लग्गा डुङ्गरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ।। जा एहा गिरि-गिलण-मणु सो किं धणर्हे घणाइ।।१।। अत्र अब्भा इति नपुंसकस्य पुंस्त्वम्।। पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरू ल्हसिउं खन्धस्सु।। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउं कन्तस्सु।। २।। अत्र अन्त्रडी इति नपुंसकस्य स्त्रीत्वम्।। सिरि चडिआ खन्ति, प्फलई पुणु डालई मोडन्ति।। तो वि महहुँ सउणाहं अवराहिउ न करन्ति।। ३।। अत्र डालई इत्यत्र स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम्।। अर्थः-अपभ्रंश-भाषा में शब्दों के लिंग के सम्बन्ध में दोष-युक्त व्यवस्था पाई जाती है; तदनुसार पुल्लिंग को कभी-कभी नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया जाता है और कभी कभी नपुंसकलिंग वाले शब्द को पुल्लिंग के रूप में लिख दिया जाता है। इसी प्रकार से स्त्रीलिंग वाले शब्द को भी प्रायः नपुंसकलिंग के रूप में प्रदर्शित कर दिया जाता है और नपुंसकलिंग वाले शब्द को भी स्त्रीलिंग वाले के रूप में प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है; यों प्रायः होने वाली इस व्यवस्था को ग्रंथकार ने वृत्ति में 'व्यभिचारी व्यवस्था के नाम से कहा है। इस दोष-यक्त परिपाटी को समझाने के लिये वृत्ति में जो उदाहरण दिये गये हैं; उनका अनुवाद क्रमशः इस प्रकार से है: (१) संस्कृतः- गजानों कुम्भान् दारयन्तम्-गय-कुम्भई दारन्तु-हाथियों के गण्ड-स्थलों को चीरते हुए को। यहाँ पर 'कुम्भ' शब्द को नपुंसकलिंग के रूप में व्यक्त कर दिया है; जबकि यह शब्द पुल्लिंग है। (२) संस्कृत : अभ्राणि लग्नानि पर्वतेषु, पथिकः आरटन याति।। यः एषः गिरिग्रसनमनाः स किं धन्यायाः घृणायते।।१।। हिन्दी:-पर्वतों के शिखरों पर लगे हुए अथवा झुके हुए बादलों को (लक्ष्य करके) यात्री यह कहता हुआ जा रहा है कि- 'यह मेघ (क्या) पर्वतों को निगल जाने की कामना कर रहा है अथवा (क्या) यह उस सौभाग्य-शालिनी नायिका से घृणा करता है। (क्योंकि इस घन-श्याम मेघ वाला को देखने से उस नायिका के चित्त में काम-वासना तीव्र रूप से पीड़ा पहुँचानें लगेगी) इस छन्द में मेघ वाचक शब्द 'अब्भ' को पुल्लिंग के रूप में लिखा है; जबकि वह नपुंसकलिंग वाला है।।१।। (३)संस्कृत : पादे विलग्नं अन्नं, शिरः स्त्रस्तं स्कन्धात्॥ तथापि कटारिकायां हस्तः बलि क्रियते कान्तस्य।। २॥ ____ हिन्दी:-कोई एक नायिका अपनी सखि से अपने प्रियतम पति को रण-क्षेत्र में प्रदर्शित वीरता के सम्बन्ध में चर्चा करती हुई कहती है कि 'देखो ! युद्ध करते-करते उसके शरीर की आन्तड़ियाँ बाहिर निकल कर पैरों तक जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434