Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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392 : प्राकृत व्याकरण
लटकी है और सिर धड़ से लटक सा गया है। फिर भी उसका हाथ कटारी पर (छोटी सी तलवार पर) शत्रु को मारने के लिये लगा हुआ है; ऐसे वीर पति के लिये मैं बलिदान होती हूँ। 'इस गाथा में 'अन्त्रडी' शब्द को स्त्रीलिंग के रूप में बतलाया है; जबकि यह नपुंसकलिंगवाला है।। २।। (४)संस्कृत : शिरसि आरूढ़ाः खादन्ति फलानि; पुनः शाखा मोटयति।।
तथापि महाद्रमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति।। ३।। हिन्दी:-देखो ! पक्षीगण महावृक्षों की सर्वोच्च शाखाओं पर बैठते हैं; उनके फलों को रूचिपूर्वक खाते हैं तथा उनकी डालियों को तोड़ते हैं-मरोड़ते हैं; फिर भी उन महावृक्षों की कितनी ऊंची उदारता है कि वे न तो उन पक्षियों को अपराधी ही मानते हैं और न उन पक्षियों के प्रति कुछ भी हानि पहुँचाने की कामना ही करते हैं। (यही वृत्ति सज्जन-पुरूषों के प्रति होती है)। इस गाथा में 'डालई शब्द आया है, जो कि मूल रूप से स्त्रीलिंग वाला है फिर भी उसका प्रयोग यहाँ पर नपुंसकलिंग के रूप में कर दिया गया है। यों अपभ्रंश-भाषा में अनेक स्थानों पर पाई जाने वाली लिंग सम्बन्धी दुर्व्यवस्था की कल्पना स्वयमेव कर लेनी चाहिये।।४-४४५।।
शौरसेनीवत्।।४-४४६।। अपभ्रंश प्रायः शौर-सेनीवत् कार्य भवति।। सीसि सेहरू खणु विणिम्मविदु; खणु कण्ठि पालम्बु किदु रदिए।। विहिदु खणु मुण्ड-मालिए जं पणएण; तं नमहु कुसुम-दाम-कोदण्डु कामहो।॥१॥
अर्थः-शौरसेनी भाषा में व्याकरण-संबंधित जो नियम-उपनियम एवं संविधान है; वे सब प्रायः अपभ्रंश- भाषा में भी लागू पड़ते है। यों शौरसेनी-भाषा के अनुसार प्रायः अनेक कार्य अपभ्रंश-भाषा में भी देखे जाते है।। जैसे:
(१) निवृर्ति-निव्वुदि-आरम्भ-परिग्रह से रहित वृत्ति को। (२) विनिर्मापितम्-विणिम्मविदु-स्थापित किया हुआ है, उसको। (३) कृतम् किदु किया हुआ है। (४) रत्याः =रदिए-कामदेव की स्त्री रति के। (५) विहितं विहिदु-किया गया है। इन उदाहरणों में शौरसेनी-भाषा से संबधित नियमों के अनुसार कार्य हुआ है। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : शीर्श शेखर क्षणं विनिर्मापितम्।।
क्षणं कण्ठे प्रालम्बं कृतं रत्याः।। विहितं क्षणं मुण्ड-मालिकाया।।
तत्रमत कुसुम-दाम-कोदण्डं कामस्य।।१।। हिन्दी:-कामदेव ने नीलकण्ठ भगवान् शंकर को अपनी तपस्या से डिगाने के लिये पुष्पों से निर्मित धनुष को उठाया। सर्वप्रथम उसने क्षण भर के लिये उसको अपने सिर पर आभूषण के रूप में प्रस्थापित किया; तत्पश्चात् रति के कण्ठ में क्षण भर के लिये उसको लटकाये रक्खा और अन्त में शंकर के गले में पड़ी हुई मुण्ड-माला पर क्षण भर के लिये उसकी स्थापना की; ऐसे कामदेव के पुष्पों से बने हुए धनुष को तुम नमस्कार करो।।१।।४ - ४४६।।
व्यत्ययश्च।।४-४४७।। प्राकृतादिभाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति।। यथा मागध्या 'तिष्ठश्चिष्ठ' इत्युक्तं तथा
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