Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
372 : प्राकृत व्याकरण
(२१) यद्-यद्-दृष्टं जाइ टुिआ जिस-जिस को देखते हुए; जिस जिस को देखकर के, देखे हुए जिस जिस के
साथ। वृत्ति में इन इक्कीस ही शब्दों का प्रयोग गाथाओं द्वारा तथा गाथा चरणों द्वारा समझाया गया है; तदनुसार उन गाथाओं का और उन गाथा-चरणों का संस्कृत भाषान्तर पूर्वक हिन्दी अर्थ क्रम से यों है:संस्कृत : एक कदापि नागच्छसि, अन्यत् शीघ्रं यासि।।
मया मित्र प्रमाणितः, त्वया यादृशः (त्वं यथा) खलः न हि।।१।। हिन्दी:-तुम कभी एक बार भी मेरे पास नहीं आते हो और दुसरी जगह पर तुम शीघ्रता पूर्वक जाते हो; इससे हे मित्र ! मैंने समझ लिया है कि तुम्हारे समान दुष्ट कोई नहीं है। इस गाथा में "शीघ्रं" के स्थान पर "वहिल्लउ" पद का प्रयोग समझाया है।।१।। संस्कृत : यथा सत्पुरूषाः तथा कलहाः, यथा नद्यः तथा वलनानि।।
यथा पर्वताः तथा कोटराणि, हृदय ! खिद्यसे किम् ? हिन्दी:- जितने सज्जन पुरूष होते हैं, उतने ही झगड़े भी होते है। जितनी नदियां होती हैं, उतने ही प्रवाह भी होते हैं; जितने पहाड़ होते हैं, उतनी ही गुफाएं भी होती हैं; इसलिये हे हृदय ! तू खिन्न क्यों होता है ? इस विश्व में अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ तो अनादि-अनन्त काल से उत्पन्न होती ही आई हैं। इस छंद में "कलह' के स्थान पर "घघल" पद प्रयुक्त हुआ है।। २।। संस्कृत : ये मुक्त्वा रल-निधिं, आत्मानं तटे क्षिपन्ति।।
तेषां श।। खाना संसर्गः केवल फूत्क्रियमाणाः भ्रमन्ति।। ३।। हिन्दी:-जो शंख रत्नों के भंडार रूप समुद्र को छोड़ करके अपने आपको समुद्र के किनारे पर फेंक देते हैं; उन शंखों की स्थिति अस्पृश्य जैसी हो जाती है; और वे सिर्फ दूसरों की फूंक से आवाज करते हुए अनिश्चित स्थानों पर भटकते रहते हैं। इस गाथा में “अस्पृश्य संसर्ग' के स्थान पर "विटालु'' पद का प्रयोग हुआ है।। ३।। संस्कृत : दिवसै अर्जितं खाद मूख ! संचिनु मा एकमपि द्रम्मम्।।
किमपि भयं तत् पतति, येन समाप्यते जन्म।।४।। हिन्दी:-अरे मूर्ख ! जो कुछ भी प्रतिदिन तेरे से कमाया जाता है उसको खा, उसका उपयोग कर और एक पैसे का भी संचय मत कर; क्योंकि अचानक ही कुछ भी भय (मृत्यु आदि) आ सकती है। इस छन्द में "भयं" पद की जगह पर अपभ्रंश भाषा में "द्रवक्कउ" पद का प्रयोग किया गया है।।४||
संस्कृत : स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं-फोडेन्ति जे हिअडउं अप्पणउं= जो (दोनों स्तन) अपने खुद के (हृदय को ही) फोड़ते हैं-विस्फोटित होकर उभर आते है।। इस गाथा-चरण में संस्कृत-पद "आत्मीय" के बदले में "अप्पउँ" पद प्रदान किया गया है। संस्कृत : एकैकं यद्यपि पष्यति हरिः सुष्टु सर्वादरेण।
तथापि दृष्टिः यत्र कापि राधा, कः शक्नोति संवरीतुं नयने स्नेहेन पर्यस्ते।। ५।। हिन्दी:- यद्यपि हरि (भगवान् श्री कृष्ण) प्रत्येक को अच्छी तरह से और पूर्ण आदर के साथ देखते हैं; तो भी उनकी दृष्टि (नजर) जहाँ कहीं पर भी राधा-रानी है, वहीं पर जाकर जम जाती है। यह सत्य ही है कि प्रेम से परिपूर्ण नेत्रों को (अपनी प्रियतमा से) दूर करने के लिये-(हटाने के लिये) कौन समर्थ हो सकता है ? इस अपभ्रंश-काव्य में 'दृष्टि' के स्थान में 'रोहि' शब्द लिखा गया है।। ५।। संस्कृत : विभवे कस्य स्थिरत्वं ? यौवने कस्य गर्वः ?
स लेखः प्रस्थाप्यते, यः लगति गाढम्।। ६।। हिन्दी:- धन संपत्ति के होने पर भी किसका (प्रेमाकर्षण) स्थिर रहा है? और यौवन के होने पर भी प्रेमाकर्षण For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International