Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 407
________________ 374 : प्राकृत व्याकरण हिन्दी:-एक छोटी सी झोंपड़ी हो और जिसमें पाँच (प्राणी) रहते हों तथा उन पाँचों की ही बुद्धि अलग अलग ढंग से विचरती हो तो हे बहिन ! बोलो; वह घर आनन्दमय कैसे हो सकता है, जबकि सम्पूर्ण कुटुम्ब ही (जहाँ पर) स्वछन्द रीति से विचरण करता हो। (यह कथानक शरीर और शरीर से सम्बन्धित पाँचों इन्द्रियों पर भी घटाया जा सकता है।) इस गाथा में 'पृथक्-पृथक् अव्यय के स्थान पर अपभ्रंश भाषा की दृष्टि से 'जुअं-जुअं अव्यय का प्रस्थापना की गई है।।१२।। संस्कृत : यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम्।। रतिवष भ्रमण शीलः कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मूढः।।१३॥ हिन्दी:- वह महामूर्ख है, जो कि मन में ही घबराता हुआ सोचता रहता है और न दमड़ी देता है और न रूपया ही। दूसरे प्रकार का महामर्ख वह है जो कि राग अथवा मोह के वश में होकर घमता रहता है और घ को लेकर हाथ के अग्र भाग में ही घुमाता हुआ केवल गणना करता रहता है (कि मैंने इतनी बार भाला चलाया है और इसलिये मैं वीर हूँ तथा कंजूस सोचता है कि मैं इतना-इतना दान कर दूं परन्तु करता कुछ भी नहीं है) इस विशिष्ट गाथा में 'मूढ' शब्द के स्थान पर अपभ्रंश में 'नालिअ-नालिउ' शब्द का प्रयोग किया गया है। संस्कृतः- दिवसैःअर्जितं खाद मुर्ख ! दिवेहिं विढत्तउं खाहि वढ ! हे मूर्ख ! प्रतिदिन कमाये हुए (खाद्य--पदार्थो) को खा। (कंजूसी मत कर) इस चरण में 'मूर्ख' शब्द वाचक द्वितीय शब्द 'वढ' का अनुयोग है संस्कृतः-(१६)-नवा कापि विष-ग्रन्थिः-नवखी क वि विसगण्ठि- (यह नायिका) कुछ नई ही (अनोखी ही) विषमय गांठ है: इस गाथा-पाद में नतनता वाचक पद "नवा" के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "नवखी पद का व्यवहार किया गया है। पुल्लिंग में "नवख" होता है और स्त्रीलिंग में "नवखी' लिखा है। संस्कृत : चलाभ्यां वलमानाभ्यां लोचनाभ्यां ये स्वया दृद्दष्टाः बाले! तेषु मकर-ध्वजावस्कन्दः पतति अपुर्णे काले।।१४।। हिन्दी:-ओ यौवन संपन्न मदमाती बालिका ! तेरे द्वारा चंचल और फिरते हुए (बल खाते हुए) दोनों नेत्रों से जो (पुरूष) देखे गये है; उन पर उनकी यौवन-अवस्था नहीं प्राप्त होने पर भी (यौवन-काल नहीं पकने पर भी।) काम का वेग (काम-भावना) हठात् शीघ्र ही (बल-पूर्वक) आक्रमण करता है। यहां पर "शीघ्रता-वाचक-हठात्-वाचक" संस्कृत-शब्द "अवस्कन्द" के स्थान पर आदेश प्राप्त शब्द "दडवड" को प्रयुक्त किया गया है। संस्कृत : यदि अर्घति व्यवसाय: छड़ अग्घइ ववसाउ हिन्दी :- यदि व्यापार सफल हो जाता है। इस गाथा-चरण में "यदि" अव्यय के स्थान पर "छुडु" अव्यय को स्थान दिया गया है। संस्कृत : गतः स केसरी, पिबत जलं निश्चिन्त हरिणाः!।। __ यस्य संबन्धिना हुंकारेण, मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि।।१५।। हिन्दी:-अरे हिरणों ! वह सिंह ( तो अब ) चला गया है; (इसलिये) तुम निश्चिंत होकर जल को पीओ। जिस (सिंह से) सम्बन्ध रखने वाली (भंयकर) गर्जना से-हुँकार से- (खाने के लिये मुंह में ग्रहण किये हुए) घास के तिनके (भी) मुखों से गिर जाते है; (ऐसी हुंकार वाला सिंह तो अब चला गया है)। इस गाथा में "सम्बन्धिना'' पद के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में "केर केरए" पद की अनुरूपता समझाई है।।१५।।। संस्कृतः-अथ भग्ना अस्मदोया आ भग्गा अम्हं तणा-यदि हमारे से सम्बन्ध रखने वाले भाग गये हैं अथवा मर गये हैं। इस गाथा-पाद में “संबंध" वाचक अर्थ में "तणा" पद का प्रयोग किया गया है। यों अपभ्रंश भाषा में "संबंध-वाचक" अर्थ में "केर और तण" दोनों प्रकार के शब्दों का व्यवहार देखा जाता है। संस्कृत : स्वास्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति।। आर्तानां मा भैषीः इति यः सुजनः स ददाति।।१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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