Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित: 363 हुए हैं। वे (आँख) जब किसी को देखने के लिये इधर-उधर घुमाई जाती है तो वे (आँख) बड़ा तेज आघात पहुँचाती है। इस छद में 'प्रायः' के स्थान पर 'प्राइम्ब' आदेश प्राप्त अव्यय का प्रयोग किया गया है || ३ ||
भरे
संस्कृत :
एष्यति प्रियः, रोषिष्यामि अहं, रूष्टां मामनुनयति । । प्रायः एतान् मनोरथान् दुष्करः दयितः कारयति ।।४।।
हिन्दी:- (कोई एक नायिका अपनी सखी से कहती है कि ) मेरा प्रियतम पति आवेगा; मैं (उसके प्रति कृत्रिम ) रोष करूँगी और जब मुझे क्रोधित हुई देखेगा तो मुझे मनावेगा - खुश करने का प्रयत्न करेगा । यों मेरे इन मनोरथों को वह कठिनाई से वश में आनेवाला प्रेमी पति प्रायः पूर्ण करेगा अथवा करता है। इस गाथा में 'प्रायः ' स्थान पर आदेश - प्राप्ति के रूप में होने वाले चौथे शब्द 'अग्गिम्ब' को प्रदर्शित किया गया है ।।४-४१४।।
वान्यथोनुः।।४-४१५ ।।
अपभ्रंशे अन्यथा शब्दस्य अनु इत्यादेशो वा भवति ।। पक्षे। अन्नह।। विरहाणल-जाल-करालिअउ, पहिउ कोवि बुद्धि वि ठिअओ ।। अनुसिसिर- कालि सीअल - जलहु धूमु कहन्ति हु उट्ठिअओ ॥ १ ॥
अर्थ:-' अन्य प्रकार से दूसरी तरह से इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत अव्यय शब्द ' अन्यथा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में विकल्प से 'अनु' शब्द रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'अन्नह' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- अन्यथा = अनु अथवा अन्नह = अन्य प्रकार से अथवा दूसरी तरह से । गाथा का अनुवाद यों है:
-
संस्कृत : विरहानल ज्वाला करालितः पथिकः कोऽपि मङ्क्तवा स्थितः ।। अन्यथा शिशिर - काले शीतल जलात् धूमः कुतः उत्थितः ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपनी प्रियतम पत्नी के वियोग रूपी अग्नि की ज्वालाओं से पीड़ित होता हुआ कोई यात्री - पथिक विशेष जल में डूबकी लगाकर ठहरा हुआ है; यदि वह (अग्नि ज्वाला से ज्वलित) नहीं होता तो ठंड की ऋतु में ठंडे जल में से धूंआ (वाष्परूप) कहाँ से उठता ? इस सुन्दर कल्पनामयी गाथा में 'अन्यथा' के स्थान पर 'अनु' अव्यय रूप का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है ।।४-४१५।।
कुतसः कउ कहन्तिहु ।।४-४१६।।
अपभ्रंशे कुतस् शब्दस्य कउ, कहन्तिहु इत्यादेशौ भवतः ॥ महु कन्तो गुटु - द्विअहो कउ झुम्पड़ा वलन्ति । ।
अह रिउ - रूहिरें उल्हवइ अह अप्पणें न भन्ति ॥ १ ॥
धू कहन्ति अउ ||
अर्थः-'कहाँ से' इस अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले संस्कृत अव्यय शब्द 'कुतः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'कउ और कहन्तिहु' ऐसे दो अव्यय शब्द रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- कुतः - कउ और कहन्तिहु = कहाँ से ? गाथा में क्रम से इन दोनों का प्रयोग किया गया है; इसका अनुवाद यों है:
संस्कृत :
Jain Education International
मम कान्तस्य गोष्ठ स्थितस्य, कुतः कुटीरकाणि ज्वलन्ति ।। अथ रिपुरुधिरेण आर्द्रयति अथ आत्मना, न भ्रान्तिः ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपने भवन में रहते हुए मेरे प्रियतम पति देव की उपस्थिति में झोंपड़ियां कैसे -(कहाँ से किस कारण से) अग्नि द्वारा जल सकती है ? (क्योंकि ऐसा होने पर) उन झोपड़ियों को या तो वह (पति देव ) शत्रुओं के रक्त से
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org