Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 394
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 361 (५) खङ्ग-विसाधितं यत्र लभामहे खग्ग-विसाहिउं जहिं लहहु तलवार (के बल) से प्राप्त होने वाला (लाभ) जहाँ पर हम प्राप्त करे।। गाथा के इस भाग में लहहु क्रियापद में अन्त्य अक्षर 'हु' को 'हूँ' नहीं लिखकर लघु उच्चारण की वैकल्पिक स्थिति को सिद्ध किया है। (६) तृणानां तृतीया भङ्गी नापि-तणहँ तइज्जी भङ्गि नवि-तिनकों की तीसरी स्थिति नहीं भी (होती है)। गाथा के इस चरण में 'तणह' के स्थान पर 'तणहँ लिख कर यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि पदान्त 'हं' का उच्चारण लघु रूप से होने पर 'हूँ' ऐसा होता है। इन सब उदाहरणों से और इस सूत्र से यही संविधान किया गया है कि पदान्त में रहे हुए 'उ' हु, हिं और हं' के स्थान पर उच्चारण-लघुता की दृष्टि से 'उँ', हु, हिँ और हँ, ऐसा स्वरूप भी होगा।।४ - ४११।। म्हो म्भो वा।।४-४१२।। अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराक्रान्तो भकारो वा भवति।। म्ह इति पक्षम-शम-ष्म-स्म-ह्मां म्हः (२-७४) इति प्राकृत –लक्षण-विहितोऽत्र गृहाते। संस्कृत तदसंभवात्। गिम्भो। सिम्भो।। बम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वङ्ग-छइल्ल।। जे वङ्का ते वञ्चयर, जे उज्जुअ ते बइल्ल।।१।। अर्थः-सूत्र-संख्या २-७४ में ऐसा विधान आया है कि 'पक्ष्म' में स्थित 'क्ष्म' के स्थान पर और 'शम, ष्म स्म तथा मां के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'म्ह' की आदेश प्राप्त होती है; तदनुसार आदेश प्राप्त 'म्ह' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में हलन्त मकार संलग्न मकार की अर्थात् 'म्भ' की आदेश प्राप्ति विकल्प से होती है। 'म्ह' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में ही होती है; संस्कृत-भाषा में इसका अभाव है, इसलिये इस सूत्र में जो 'म्ह' के स्थान पर 'म्भ' प्राप्ति का संविधान किया गया है, उसका मूल स्थान प्राकृत-भाषा में रहा हुआ है ऐसा जानना चाहिये। जैसे:-(१) ग्रीष्मः गिम्हो और गिम्भो-उष्णता की ऋतु। यों अपभ्रंश भाषा में 'ग्रीष्मः' शब्द के अर्थ में 'गिम्हो और गिम्भो, दोनों प्रकार के पदों का अस्तित्व है। (२) श्लेश्मा-सिम्हो और सिम्भो और सिम्भो-कफ-खेंखार। इस उदाहरण में भी 'श्लेश्मा' के दो पद 'सिम्हो' और सिम्भो' इस सूत्र के अनुसार बतलाये गये है।। गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : ब्रह्मन् ! ते विरलाः केऽपि नराः, ये सर्वाङ्गच्छेकाः।। ये वक्राः ते वञ्च (क) तराः, ये ऋजवः ते बलीवर्दाः।। हिन्दी :- ओ ब्राह्मण ! ऐसे पुरूष अत्यन्त ही कम है विरल है; जो कि सभी प्रसंगों में अच्छे और चतुर प्रमाणित हो।। जो वक्र (टेढ़ी) प्रकृति वाले हैं, वे ठग हैं और जो सीधे अर्थात् चतुराई रहित और विवेक रहित होते हुए स्पष्ट वक्ता हैं वे बैल के समान है।। इस गाथा में 'ब्रह्मन्' के स्थान पर 'बम्भ' का प्रयोग करके यह प्रमाणित किया है कि अपभ्रंश भाषा में 'म्ह' के स्थान पर विकल्प से 'म्भ' की प्राप्ति देखी जाती है।।४-४१२।। अन्यादृशोन्नाइसावराइसौ।।४-४१३।। अपभ्रंशे अन्यादृश शब्दस्य अन्नाइस अवराइस इत्योदेशौ भवतः।। अन्नाइसो। अवराइसो।। अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध विशेषण शब्द 'अन्यादृशः' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'अन्नाइस और अवराइस' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-अन्यादृशः अन्नाइसो और अवराइसो अन्य के समान दूसरे के जैसा।।४-४१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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