Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 365
माणि पण?इ जइ न तणु तो देसडा चइज्ज।। मा दुज्जण-कर-पल्लेवेहि देसिज्जन्तु भमिज्ज।।४।। लोणु विलिज्जइ पाणिएण, अरिखल मेह ! म गज्जु।। बालिउ गलइ सुझुपडा, गोरी तिम्मइ अज्जु।। ५।। मनाको मणाउ।। विहवि पण?ई वकुडउ रिद्धिहिं जण-सामन्नु।। किं पि मणाउं महु पिअहो ससि अणुहरइ न अन्नु।। ६।।
अर्थः- संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्ययों का अपभ्रंश भाषा में भाषान्तर करने पर उनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है; उसी परिर्वतन का संविधान इस सूत्र में दिया गया है। इस परिर्वतन को यहाँ पर 'आदेश-प्राप्ति' के नाम से लिखा गया है। अव्ययों की क्रम से सूची इस प्रकार है:-(१)एवं एम्व-इस प्रकार से अथवा इस तरह से। (२) परं-पर-किन्तु-परन्तु। (३) समं समाणु साथ। (४) ध्रुवंध्रुवु निश्चय ही।(५) मा मं=मत, नहीं।। (६) मनाक्-मणउं=थौड़ा सा भी-अल्प भी। इन्हीं अव्ययों का प्रयोग क्रम से गाथाओं में समझाया गया है; तदनुसार इन गाथाओं का संस्कृत में तथा हिन्दी में भाषान्तर क्रम से इस प्रकार से है:संस्कृत : प्रिय संगमे कथं निद्रा ? प्रियस्य परोक्षे कथम् ?
मया द्वे अपि विनाशिते, निद्रा नैवं न तथा।। हिन्दी:-प्रियतम पतिदेव के सम्मिलन होने पर (सुख के कारण से) निद्रा कैसे आ सकती हैं? और प्रियतम पति देव के वियोग में भी (वियोग-जनित-दुःख होने के कारण से भी) निद्रा कैसे आ सकती है ? मेरी निद्रा दोनों ही प्रकार से नष्ट हो गई है। न इस प्रकार से और न उस प्रकार से। इस गाथा में संस्कृत अव्यय ‘एवं' के स्थान पर 'एम्व' का प्रयोग समझाया गया है। 'कथं के स्थान पर 'केम्व' और 'तथा' के स्थान पर 'तेम्व' की स्थिति की भी कल्पना स्वयमेव कर लेना चाहिए।।१।। (२) गुणैः न संपत् कीर्तिः परं-गुणहि न संपइ कित्ति पर गुणों से लक्ष्मी नहीं (प्राप्त होती है) किन्तु कीर्ति ( ही प्राप्त
होती है) इस चरण में 'परं' अव्यय के स्थान पर आदेश प्राप्त अव्यय रूप 'पर' का उपयोग किया गया है। संस्कृत : कान्त यत् सिंहेन उपमीयते, तन्मम खण्डितः मानः।।
सिंहः नीरक्षकान् गजान् हन्ति; प्रियः पदरक्षेः समम्।। हिन्दी:-यदि मेरे पति की तुलना सिंह से की जाती है तो इससे मेरा मान-मेरा गौरव-खण्डित हो जाता है; क्योंकि सिंह तो ऐसे हाथियों को मारता है; जिनका कि कोई रक्षक नहीं है; (अर्थात् रक्षकहीन को मारने में कोई वीरता नहीं है); जबकि मेरा प्रियतम पतिदेव तो रक्षा करने वाले सैनिकों के साथ शत्रु-राजा को मारता है। यों तुलना में मेरा पति सिंह से भी बढ़ चढ़ कर है। इस गाथा में 'सम' अव्यय के स्थान पर 'समाणु' अव्यय का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है।। २॥ संस्कृत : चंचलं जीवितं, ध्रुवं भरणं, प्रिय ! रूष्यते कथं ? ।
भविष्यन्ति दिवसा रोषयुक्ताः (रूसणा) दिव्यानि वर्ष-शतानि।। ३।। हिन्दी:-जीवन चंचल है अर्थात् किसी भी क्षण में नष्ट हो सकता है और मृत्यु ध्रुव याने निश्चित है तो ऐसी स्थिति में हे प्रियतम पतिदेव ! रोष याने क्रोध क्यों किया जाय ? यदि रोष युक्त दिन व्यतीत होंगे तो हमारा प्रत्येक दिन 'देवलोक में गिने जाने वाले सौ सौ वर्षों के समान लम्बा और नहीं काटा जा सकने जैसा प्रतीत होगा। इस गाथा में 'ध्रुवं' के स्थान पर आदेश प्राप्त रूप 'ध्रुव' का प्रयोग किया गया है।। ३।। ____ 'मत-नहीं' अर्थक 'मा' अव्यय के स्थान पर 'म' के प्रयोग का उदाहरण यों है:- मा धन्ये ! कुरू विषादम्-मं धणि ! करहि विसाउ-हे धन्यशील नायिके ! तू खेद को मत कर-खिन्न मत हो। 'प्रायः' के साथ आदेश-प्राप्ति
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