Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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338 : प्राकृत व्याकरण
ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र।।४-३७२।। अपभ्रंशे युष्मदो उसि-उस् भ्यां सह तउ तुज्झ तुध्र इत्येते त्रय आदेशा भवति।। तउ होन्तउ आगदो। तुज्झ होन्तउ आगदो। तुध्र होन्तउ आगदो।। ङसा। तउगुण-संपइ तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति।। जइ उप्पत्तिं अन्न जण महि-मंडलि सिक्खन्ति।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'उसि' दोनों ही के स्थान पर नित्यमेव 'तउ अथवा तुज्झ अथवा तु,' ऐसे तीन पद-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- त्वत्-तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र-तुझसे तेरेसे।। इसी प्रकार से 'युष्मद्' सर्वनाम शब्द के साथ में षष्ठी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय 'ङस्' का संयोग होने पर उसी प्रकार से मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय 'ङस्' दोनों ही के स्थान पर वैसे ही 'तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र ऐसे समान रूप से ही इन तीनों पद-रूपों की नित्यमेव आदेश प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- तव अथवा ते तउ अथवा तुज्झ अथवा तुध्र-तेरा, तेरी, तेरे (एकवचन के अर्थ में तुम्हारा, तुम्हारी, तुम्हारे)।। वृत्ति में दिये गये उदहारणों का अनुवाद इस प्रकार से हैं:.. त्वत् भवतु अथवा भवेत् आगतः=(१) तउ होन्तउ आगदो (२) तुज्झ होन्तउ आगदो (३) तुध्र होन्तउ आगदो-तेरे से अथवा तुझसे आया हुआ (अथवा प्राप्त हुआ) होवे।। 'ङस्' प्रत्यय से सम्बन्धित आदेश-प्राप्त पद-रूपों के उदाहरण गाथा में दिये गये हैं; तदनुसार गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : तव गुण-संपदं तव मतिं तव अनुत्तरां क्षान्तिम्।।
यदि उत्पद्य अन्य-जनाः मही-मंडले शिक्षन्ते।। हिन्दी:-(मेरी यह कितनी उत्कट भावना है कि) इस पृथ्वी मंडल पर उत्पन्न होकर अन्य पुरूष यदि तुम्हारी गुण-संपत्ति को, तुम्हारी बुद्धि को और तुम्हारी असाधारण-अत्युत्तम क्षमा को सीखते हैं-इनका अनुकरण करते हैं (तो यह कितनी अच्छी बात होगी ?) यो गाथा में 'तव' पद रूप के स्थान पर क्रम से 'तउ तुज्झ और तुध्र' आदेश-प्राप्त पद-रूपों का प्रयोग किया गया है।।४-३७२।।
भ्यसाम्भ्यां तुम्हह।।४-३७३।। अपभ्रंशे युष्मदो भ्यस् आम् इत्येताभ्याम् सह तुम्हहं इत्यादेशो भवति।। तुम्हहं होन्तउ आगदो। तुम्हहं केरउं धणु।।
अर्थ:-अपभ्रंश भाषा में 'युष्मद् सर्वनाम शब्द के साथ में पंचमी-विभक्ति बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का संयोग होने पर मूल शब्द 'युष्मद् और प्रत्यय 'भ्यस्' दोनों के स्थान पर 'तुम्हह ऐसे पद-रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- युष्मत्-तुम्हह-तुम से-आप से। इसी प्रकार से इसी सर्वनाम शब्द 'युष्मत्' के साथ में चतुर्थी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'भ्यस्' का और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का बोधक प्रत्यय 'आम्' का सम्बन्ध होने पर मूल शब्द 'युष्मद्' और प्रत्यय दोनों के स्थान पर भी उसी प्रकार से 'तुम्हह' पद रूप की नित्यमेव आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। जैसे:
(१) युष्मभ्यम्=तुम्हह-तुम्हारे लिये अथवा आपके लिये। (२) युष्माकम्=तुम्हह-तुम्हारा, तुम्हारी, तुम्हारे और आपका, आपकी, आपके, इत्यादि।।
सुत्र में और वृत्ति में 'चतुर्थी-विभक्ति' का उल्लेख नहीं किया गया है परन्तु सूत्र-संख्या ३-१३१ के विधान से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग की अनुमति दी गई है; इसलिये यहाँ पर चतुर्थी विभक्ति का
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