Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 383
________________ 350 प्राकृत व्याकरण जाती है तो ऐसे पुत्र के उत्पन्न होने से अथवा जीवित रहने से क्या लाभ है? और (ऐसे निकम्मे पुत्र के ) मर जाने से भी कौन सी हानि है? (निकम्मे पुत्र का तो मरना अथवा जीवित रहना दोनों ही एक समान ही है) इस गाथा में 'बप्पीकी और चम्पिज्जइ' ऐसे दो पदों की प्राप्ति देशज भाषा से हुई है; जो कि ध्यान में रखने योग्य है ।। ६ ।। तत् तावत् जलं सागरस्य, स तावन् विस्तारः ।। तृषो निवारणं पलमपि नैव परं शब्दायते असारः ।। ७।। संस्कृत : हिन्दी:-समुद्र का जल अति मात्रा वाला होता है और उसका विस्तार भी अत्यधिक होता है; किन्तु थोड़ी देर के लिये भी सी प्यास भी मिटाने के लिये वह समर्थ नहीं होता है; फिर भी निरर्थक गर्जना करता रहता है; (अपनी महानता का अनुभव कराता रहता है) इस गाथा में 'घुट ठुअइ' ऐसा जो क्रियापद आया है, वह देशज है। यों अपभ्रंश भाषा में अनेकानेक देशज पदों का प्रयोग किया गया है; जिन्हें स्वयमेव समझ लेना चाहिये । । ४ - ३९५ ।। अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क -ख-त-थ-प-फां, ग-घ-द-ध-ब- भाः ।।४-३९६॥ अपभ्रंशेऽपदादौ वर्तमानानां स्वरात् परेषामसंयुक्तानां क ख त थ प फां स्थाने यथा संख्यं ग घ द ब भाः प्रायो भवन्ति । । कस्य मा । जं दिट्ठ सोम - गणु असइहिं हसिउ निसंकु । पिअ - माणुस - विच्छोह - गरु गिलिगिलि राहु मयंकु ॥ १ ॥ खस्य घः । अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुधिं चिन्तिज्जइ माणु ॥ पिए दिट्ठे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २॥ तथ्पफानां दधबभाः । सबधु करेप्पिणु कधिदु मइं तसु पर सभलउं जम्मु ॥ सुनं चान चारहडि, न पम्हट्ठउ धम्मु || ३ || अनादाविति किम्। सबधु करेप्पिणु । अत्र कस्य गत्वं न भवति ।। स्वरादिति किम् । गिलिगिलि राहु मयङकु ।। असंयुक्तानामिति किम् । एक्कहिं अक्खिहिं सावणु ॥ प्रायोधिकारात् क्वचिन्न भवति । जइ केवँइ पासीसु पिउ अकिआ कुड्ड करीसु ॥ पाणीउ नवइ सरावि जिवँ सव्वङगें पर सीसु ॥ ४ ॥ उअ कणिआरू फफुल्लिअउ कञ्चन - कन्ति पयासु ।। गौरी-वयण - विणिज्जअउ नं सेवइ वण- वासु ॥ ५॥ अर्थः- संस्कृत भाषा में 'क, ख, त, थ, प और फ' इतने अक्षरों में से कोई भी अक्षर यदि पद के प्रारंम्भ में नहीं रहा हुआ हो और संयुक्त भी अर्थात् किसी अन्य अक्षर के साथ में भी मिला हुआ नहीं हो एवं किसी भी स्वर के पश्चात् रहा हुआ हो तो अपभ्रंश में 'क' के स्थान पर 'ग'; 'ख' के स्थान पर 'घ'; 'त' के स्थान पर 'द', 'थ'; के स्थान पर 'ध'; 'प' के स्थान पर 'ब' और 'फ' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति हो जाती है। ऐसी आदेश - प्राप्ति नित्यमेव नहीं होती है परन्तु प्राय: करके हो जाती है। जैसे:- 'क' के स्थान पर 'ग' प्राप्ति का उदाहरण:-शुद्धि करः-सुद्धि-गरो=पवित्रता को करने वाला। 'ख' से 'घ' : - सुखेन सुघें सुख से । 'त' का द' :- जीवितं जीविदु-जीवन जिंदगी। 'थ' का धः- कथितम् = क धदु कहा हुआ । 'प' का 'ब' :- गुरू-पदम् = गुरू- बयु - गुरू के चरण को । 'फ' का 'भ' :- सफल म्= सभलु - सफल ।। वृत्ति में आई हुई गाथाओं का भाषान्तर क्रम से यों है: संस्कृत : Jain Education International यद् दृष्टं सोम - ग्रहणमसतीभिः हसितं निःषङकम् ॥ प्रिय- मनुष्य - विक्षोभकरं, गिल गिल, राहो ! मृगाङकम् ॥१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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