Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 390
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 357 अर्थ:-संस्कृत-भाषा में उपब्लध 'याद्दक, ताइक, कीदक और ईद्दक' शब्दों में 'अत्=अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जब ये शब्द क्रम से 'याद्दश, ताद्दश, कीद्दश, और ईद्दश' रूप में परिणत हो जाते हैं; तब अपभ्रंश-भाषान्तर में इन शब्दों के अन्त्य अवयव रूप 'दश' के स्थान पर 'डित्' पूर्वक 'अइस' अवयव की आदेश प्राप्ति हो जाती है। 'डित्-पूर्वक' कहने का तात्पर्य यह है कि इन शब्दों के अन्त्य अयवय 'दृश' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'या, ता, की और ई' भाग में अवस्थित अन्त्य स्वर 'आ, औ, ई का भी लोप हो जाता है तत्पश्चात् हलन्त रूप से रहे शब्दांश में ही 'अईस' आदेश प्राप्ति की सन्धि हो जाती है। जैसे:- यादृशः जइसो जिसके समान। तादृशः तइसो उसके समान। कीदृशः कइसो-किसके समान और ईदृशः अईसो-इसके समान। ये विशेषण स्वरूप वाले है, इसलिये संज्ञाओं के समान ही इनके विभक्ति-वाचक रूप भी बनते हैं।।४-४०३।। यत्र-तत्रयोस्त्रस्य डिदेत्य्वत्तु॥४-४०४।। अपभ्रंशे यत्र-तत्र-शब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतौ डितौ भवतः।। जइ सो घडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु।। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो ताहि सारिक्खु।।१।। जत्तु ठिदो। तत्तु ठिदो॥ अर्थः-संस्कृत भाषा मे उपलब्ध 'यत्र और तत्र' अव्यय रूप शब्दों का अपभ्रंश-भाषा में रूपान्तर करने पर इनके अंत में अवस्थित 'त्र' भाग के स्थान पर 'डित् पूर्वक 'एत्थु और अत्त' ऐसे दो आदेश-रूप अंश-भाग की प्राप्ति होती है। 'डित्' पूर्वक कहने का तात्पर्य यह है कि 'यत्र और तत्र' में अवस्थित 'त्र' भाग के लोप हो जाने के पश्चात् शेषांश 'य' और 'त' में स्थित अन्त्य 'अ' का भी लोप होकर आदेश रूप से प्राप्त होने वाले 'एत्थु' अथवा अत्तु' की उनमें संधि हो जाती है। जैसेः-यत्र-जेत्थु और जत्तु-जहाँ पर। तत्र-तेत्थु और तत्तु वहाँ पर। गाथा का अनुवाद यों संस्कृत : यदि स घटयति प्रजापतिः, कुत्रापि लात्वा शिक्षाम्।। यत्रापि तत्रापि अत्र जगति, भण, तदा तस्याः सदृक्षीम्॥ हिन्दी:-यदि विश्व-निर्माता ब्रह्मा इस विश्व में यहाँ पर, वहाँ पर अथवा कहीं पर भी (निर्माणकला की) शिक्षा को पढ करके-अध्ययन करके-(पुरूषों का अथवा स्त्रियों का) निर्माण करता; तभी उस सुन्दर स्त्री के समान अन्य (पुरूष का अथवा स्त्री) का निर्माण करने में समर्थ होता। अर्थात् वह (नायिका) सुन्दरता में बेजोड़ है। इस गाथा में 'यत्र' के स्थान पर 'जेत्थु' का प्रयोग किया गया 'तत्र' के स्थान पर 'तेत्थु अव्यय रूप लिया गया है। शेष रूपों के क्रम से उदाहरण यों हैं: (१) यत्र स्थितः=जत्तु ठिदो-जहाँ पर ठहरा हुआ है। (२) तत्र स्थितः तत्तु ठिदो-वहाँ पर ठहरा हुआ है। यों क्रम से आदेश-प्राप्त चारों अव्यय-रूपों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४०४।। एत्थु कुत्रा।।।४-४०५।। अपभ्रंशे कुत्र अत्र इत्येतयोस्त्रशब्दास्य डित् एत्थु एत्यादेशो भवति।। केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु॥ जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि।। । अर्थः-संस्कृत-भाषा में उपलब्ध 'कुत्र और अत्र' अव्ययों में अवस्थित अन्त्य अक्षर 'त्र' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'डित्' पूर्वक 'एत्थु अवयव की आदेश प्राप्ति होती है। 'डित् पूर्वक कहने का अर्थ यह है कि 'कुत्र और अत्र' अव्यय शब्दों के अन्त्य अक्षर 'त्र' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए शब्दांश 'कु और अ' में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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