Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 345
बहुत्वे हुँ।।४-३८६।। त्यादीनामन्त्यत्रयस्य संबन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमान यद्वचनं तस्य हूं इत्यादेशो वा भवति।। खग्ग-विसाहिउ जहिं लहहुँ पिय तहिं देसहिं जाहु।। रण-दुब्भिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न वलाहु।।१।।
पक्षे। लहिमु। इत्यादि।। अर्थः-अपभ्रंश भाषा में वर्तमानकाल के अर्थ में 'हम' वाचक उत्तम पुरूष के बहुवचनार्थ में प्राकृत भाषा में उपलब्ध प्रत्ययों के अतिरिक्त एक प्रत्यय 'हु की आदेश प्राप्ति विकल्प से और विशेष रूप से होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'मो, मु म' प्रत्ययों की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- (१) लभामहे-लहहुँ-हम प्राप्त करते हैं।। पक्षान्तर में 'लहमो, लहुमु, लहम, लहिमु' इत्यादि रूपों की प्राप्ति होगी। (२) यामः-जाहु-हम जाते है; पक्षान्तर में जामो हम जाते है।। (३) वलामहे वलाहुं हम रह सकते है।। पक्षान्तर में वलामो हम रह सकते हैं। पूरी गाथा का अनुवाद यों है:संस्कृत : खड्ग विसाधितं यत्र लभामहे, तत्र देशे यामः।।
रण-दुर्भिक्षेण भग्नाः विना युद्धेन न वलामहे॥१॥ हिन्दी:-हम उस देश को जावेंगे अथवा जाते हैं; जहां पर की तलवार से सिद्ध होने वाले कार्य को प्राप्त कर सकते हो।। युद्व के दुर्भिक्ष से अर्थात् युद्व के अभाव से निराश हुए हम बिना युद्ध के (सुख पूर्वक) नही रह सकते हैं।।४-३८६ ।।
हि-स्वयोरिदुदेत्।।४-३८७।। पञ्यमम्यां हि-स्वयोरपभ्रंशे इ, उ, ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। इत्। कुञ्जर ! सुमरि म सल्लइउ सरला सास भ मेल्लि।। कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि।।१।। उत्। भमरा एत्थु वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु।। घण-पत्तलु छाया बहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु।। २।। एत्। प्रिय एम्बहिं करे सेल्लु करि छड्डहि तुहं करवालु।। जं कावालिय बप्पुडा लेहिं अभग्गु कवालु।। ३।। पक्षे । सुमरहि। इत्यादि।।
अर्थः-अपभ्रंश भाषा में आज्ञार्थकवाचक लकार के मध्यम पुरूष के एकवचन में प्राकृत भाषा में इसी अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि और स' अपेक्षा से तीन प्रत्यय 'इ, उ, ए' की प्राप्ति विशेष रूप से और आदेश रूप से होती है। यह स्थिति वैकल्पिक है: इसलिये इन तीन आदेश-प्राप्त प्रत्ययों 'इ. उ. ए. के अतिरिक्त 'हि और स' प्रत्यय की प्राप्ति भी होती है। जैसे:- स्मर-सुमरि-याद कर। (२) मुञ्च-मेल्लि छोड़ दे। (३) चर-चरि-खा। पक्षान्तर में 'सुमरसु और सुमरहि, मेल्लसु, मेल्लहि, चरसु, चरहि' इत्यादि रूपों की प्राप्ति भी होगी; ये उदाहरण 'इ' प्रत्यय से सम्बन्धित है। 'उ' का उदाहरण यों हैं:-विलम्बस्व-विलम्बु-प्रतीक्षा कर। पक्षान्तर में 'विलम्बसु और विलम्बहि' रूपों की प्राप्ति भी होगी। 'ए' का उदारहणः- कुरू करे-तू कर। पक्षान्तर में 'करसु और करहि' रूप भी होगें। तीनों गाथाओं का अनुवाद क्रमशः यों हैं:संस्कृत : कुञ्जर ! स्मर मा सल्लकीः, सरलान् श्रासान् मा मुञ्च।।
कवलाः ये प्राप्ताः विधिवशेन, तांरंचर, मानं मा मुञ्च।।१॥
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