Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 217 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय को जोड़ देने से उक्त काल के उक्त पुरुष के उक्त वचन का अर्थ परिस्फुटित हो जाता है। उदाहरण इस प्रकार हैं :- भवति, भवेत्, भवतु, अभवत्, अभूत् बभूव, भूयात्, भविता, भविष्यति और अभविष्यत् - होज्ज= वह होता है; वह होवे ; वह हो; वह हुआ; वह हुआ था; वह हो गया था; वह होने योग्य हो, वह होने वाला हो, वह होगा और वह हुआ होता। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि प्राकृत के क्रियापद के रूप 'होज्ज' से ही किसी भी लकार के किसी भी पुरुष के किसी भी वचन का अर्थ निकाला जा सकता है। प्राकृत भाषा में यों केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज और ज्जा' सार्वकालिक और सार्ववाचनिक तथा सार्वपौरूषेय हैं। किन्तु ध्यान में रहे कि यह स्थिति वैकल्पिक है।
हसति, हसन्ति, हससि, हसथ, हसामि और हसामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन और बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से एवं समुच्चय रूप से हसेज्ज और होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ४- २३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्तिः ३ - १५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे प्राप्त प्रत्यय 'ज्ज और ज्जा' का सद्भाव होने के कारण से 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राप्तांग 'हसे' में उक्त वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में प्राप्त सभी संस्कृत प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'ज्जा' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हसेज्ज और हसेज्जा सिद्ध हो जाते हैं।
पठति, पठन्ति, पठसि, पठथ, पठामि और पठामः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमश: एकवचन के और बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समुच्चय रूप से पढेज्ज और पढेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १ - १९९ से मूल संस्कृत - धातु 'पठ्' में स्थित हलन्त व्यंजन 'व्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति; ४ - २३९ से प्राप्त हलन्त प्राकृत धातु 'पढ्' में विकरण-प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५९ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७७ से प्राप्तांग 'पढे' में वर्तमानकालवाचक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज और ज्जा' प्रत्ययों की क्रमशः प्राप्ति होकर 'पढेज्ज और पढेज्जा' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
शृणोति, शृण्वन्ति, शृणोषि शृणुथ, शृणोमि और शृणुमः संस्कृत के वर्तमानकाल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से और समुच्चय रूप से सुणेज्ज तथा सुणेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २- ७९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय सहित पंचमगणीय धातु-अंग 'शृणु' में स्थित 'श्रृ' के 'र्' व्यंजन का लोप ; १ - २६० से लोप हुए 'र्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' में स्थित तालव्य 'श्' के स्थान पर प्राकृत में दन्त्य 'स्' की प्राप्ति; १ - २२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति' ४ - २३८ से प्राप्त 'णु' में स्थित अन्त्य स्वर 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३ - १५९ से प्राकृत में प्राप्तांग 'सुण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर ‘ए' की प्राप्ति और ३- १७७ से प्राप्तांग 'सुणे' में वर्तमान-कालिक सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत सभी प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज तथा ज्जा' की क्रम से प्राप्ति होकर सुणेज्ज और सुणेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हसइ' क्रियापद - रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३ -१३९ में की गई है। 'पढइ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - १९९ से की गई है।
शृणोति संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुणइ होता है। इसमें 'सुण' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३- १३९ से प्राप्तांग 'सुण' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप सुणइ सिद्ध हो जाता है।
पठिष्यति, पठिष्यन्ति, पठिष्यसि, पठिष्यथ, पठिष्यामि और पठिष्यामः संस्कृत के भविष्यत्काल के तीनों पुरुषों के क्रमशः एकवचन के तथा बहुवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनमें प्राकृत रूप समान रूप से पढेज्ज तथा पढेज्जा होते हैं। इनमें प्राकृत- अंग-रूप 'पढे' की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपर्युक्त-रीति अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-१७७ से प्राप्तांग 'पढे' में भविष्यत्काल के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'ज्ज तथा ज्जा' की क्रम से प्राप्ति होकर पढेज्ज तथा पढेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
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