Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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218 : प्राकृत व्याकरण
पठिष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल के प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढिहिइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१९९ से मूल संस्कृत हलन्त धातु 'पठ्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'पढ् के अन्त्य हलन्त व्यंजन द' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से प्राप्त प्राकृत धातु अङ्ग पढि' में भविष्यत्काल बोधक प्राप्त प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१३९ से भविष्यदर्थक प्राप्तांग 'पढिह' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पढिहिइ का सिद्ध हो जाता है। ___ हसतु, हसतात्, हसन्तु, हस-हसतात्, हसत, हसानि, हसाम और हसेत्, हसेयुः, हसेः, हसेत, हसेयम्, हसेम, संस्कृत के आज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग अर्थक तीनों पुरुषों के एकवचन के तथा बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत रूप समान रूप से और समुच्चय रूप से हसेज्ज तथा हसिज्जा (अथवा हसेज्जा) होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५९ से मूल प्राकृत धातु 'हस्' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तथा द्वितीय रूप में ४-२३८ से उक्त 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; यों क्रम से प्राप्तांग 'हसे और हसि' में सूत्र-संख्या ३-१७७ से आज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत सर्व प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय 'ज्ज तथा ज्जा' की ही क्रम से प्राप्ति होकर हसेज्ज हसिज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'हसउ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७६ में की गई है।
अतिपातयति, अतिपातयन्ति, अतिपातयसि, अतिपातयथ, अतिपातयामि और अतिपातयामः संस्कृत के वर्तमानकाल के प्रेरणार्थक क्रियावाले तीनों पुरुषों के क्रमशः दोनों वचनों के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप समान रूप से अइवाएज्जा और अइवायावेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत धातु 'अतिपत्' में स्थित प्रथम 'त्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्रेरणार्थक-भाव के अस्तित्व के कारण से प्राप्त व्यंजन 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से संस्कृत की मूल-धातु 'अतिपत्' के अन्त्य हलन्त व्यंजन 'त्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से उक्त प्राप्त अन्त्य 'त्'; का पुनः लोप; १-१८० से लोप हुए 'त् के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३-१५९ से प्रथम रूप में लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति नहीं होकर 'ए' की प्राप्तिः ३-१४९ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' में प्रेरणार्थक भाव के अस्तित्व में आवे' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' के साथ में प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर 'अइवायावे' अङ्ग की प्राप्ति; अंत में सूत्र-संख्या ३-१७७ से क्रम से प्राप्तांग 'अइवाए' और 'अइवायावे' में वर्तमानकालवाचक तीनों पुरुषों के दोनों वचनों में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्जा' की प्राप्ति होकर अइवाएज्जा और अइवायावेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है।
समनुजानामि संस्कृत के वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप समणुजाणामि और समणुजाणेज्जा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से दोनों ही 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्रथम रूप में प्राप्तांग 'समणुजाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१से प्रथम रूप वाले प्राप्तांग 'समणुजाणा' में वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप समणुजाणामि सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१५९ से प्राप्तांग 'समणुजाण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'समणुजाणे' में सूत्र-संख्या ३-१७७ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' के स्थान पर 'ज्जा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप समणुजाणेज्जा भी सिद्ध हो जाता है।
'वा' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। __ भवति, भवेत् भवतु, अभवत, अभूत, बभूव भूयात्, भविता, भविष्यति, और अभविष्यत् संस्कृत के क्रमशः
लट, लिङ, लोट, लङ्, लुङ, लिट, लिङ् (आशिषि), लुट्, लूट और लङ्लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अक्रर्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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