Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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264 : प्राकृत व्याकरण धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) आह, (२) अहिलंघ, (३) अहिलंख, (४) वच्च (५) वम्फ, (६) सह (७) सिंह और (८) विलुम्प। वैकल्पिक पक्ष होने से 'कंख' भी होता है। यों उक्त एकार्थक नव धातु-रूपों के क्रम से उदाहरण इस प्रकार हैं:- कांक्षति= (१) आहइ (२) अहिलंघइ, (३) अहिंलखइ (४) वच्चइ, (५) वम्फइ, (६) महइ, (७) सिहइ, (८) विलुम्पइ और (९) कंखइवह इच्छा करता है, वह चाहना करता है अथवा वह अभिलाषा करता है।। ४-१९२।।
प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमालाः।। ४-१९३।। प्रतीक्षेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। सामयइ। विहीरइ। विरमालइ। पडिक्खइ।। अर्थः- 'राह देखना, बाट जोहना' अथवा प्रतीक्षा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्रति+ईक्ष = प्रतीक्ष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) सामय, (२) विहीर, और (३) विरमाल। वैकल्पिक पक्ष होने से 'पडिक्ख' भी होता है। चारों धातुओं के उदाहरण क्रम में यों हैं:- प्रतीक्षते = (१) सामयइ, (२) विहीरइ, (३) विरमालइ, और (४) पडिक्खइ-वह राह देखता है, वह बाट जोहता है अथवा वह प्रतीक्षा करता है।।४-१९३।।
तक्षे स्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः ॥४-१९४॥ तक्षेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। तच्छइ। चच्छइ। रम्पइ। रम्फइ। तक्खइ।।
अर्थः- 'छीलना, काटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तक्ष' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) तच्छ, (२) चच्छ, (३) रम्प, (४) रम्फ। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तक्ख' भी होता है। पांचो धातुरूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- तक्ष्णोति = (१) तच्छइ, (२) चच्छइ, (३) रम्पइ, (४) रम्फइ और (५) तक्खइ =वह छीलता है अथवा वह काटता है।। ४-१९४।।
विकसेः कोआस वोसट्रो ।।४-१९५।। विकसेरेतावादेशो वा भवतः।। कोआसइ। वोसट्टइ। विअसइ॥
अर्थः- “विकसित होना, खिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+कस' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कोआस और वोसट्ट' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विअस' भी होता है। तीनों धातुरूपों के उदाहरण यों है:- विकसति = (१) कोआसइ, (२) वोसट्टइ और विअसइ वह विकसित होता है अथव वह खिलता है। ।। ४-१९५।।
हसे गुज।। ४-१९६।। हसेर्गुञ्ज इत्यादेशों वा भवति।। गुञ्जइ।। हसइ।
अर्थः- 'हँसना, हास्य करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'हस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'गुंज' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हस' भी होता है। जैसेः- हसति-गुंजइ, अथवा हसइ-वह हँसता है अथवा वह हास्य करता है। ।। ४-१९६।।।
__ संसेर्व्हस-डिम्भौ ॥ ४-१९७।। संसेरेतावादेशो वा भवतः ।। ल्हसइ।। परिल्हसइ सलिल-वसणं। डिम्भइ। संसइ।।
अर्थः- 'खिसकना, सरकना, गिर पड़ना' अर्थक संस्कृत-धातु 'संस' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ल्हस और डिम्भ' ऐसे दो धातु-रूपों की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संस' भी होता है। तीनों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- संसते = (१) ल्हसइ, (२) डिम्भइ और (३) संसइ =वह खिसकता है, सरकता है अथवा वह गिर जाता है। ।। ४-१९७।।
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