Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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308 : प्राकृत व्याकरण
हैं:- वैसे ही पैशाची-भाषा में उक्त 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तून' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) । गत्वा = गन्तू न जाकर के। (२) रन्त्वा=रन्तून = रमण करके। (३) हसित्वा हसितून हँस कर के। (४) कथयित्वा-कधितून कह करके; पठित्वा पठितून-पढ़ करके; इत्यादि।।४-३१२।।
धून-त्थू नौ ष्ट्वः ॥४-३१३।। पैशाच्यां ष्ट् वा इत्यस्य स्थाने धून त्थून इत्यादेशौ भवतः। पूर्वस्यापवादः। नदून। नत्थून। तध्दून। तत्थून।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'ष्ट्वा' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'ध्दुन और 'त्थून' ऐसे दो प्रत्यय-रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। यह सूत्र पूर्वोक्त सूत्र-संख्या ४-३१२ के प्रति अपवाद स्वरूप सूत्र है। उदाहरण यों हैं:-(१) नष्टवा-नदून अथवा नत्थून-नाश करके। (२) तष्ट्वा -तध्दून अथवा त्थून-तीव्र करके।।४-३१३।।
र्य-स्न-ष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित्।।४-३१४।। पैशाच्या र्य स्नष्टां स्थाने यथा-संख्य रिय सिन सट इत्यादेशाः क्वचिद् भवन्ति।। भार्या। भारिया। स्नातम्। सिनात।। कष्टम् कसट।। क्वचिदिति किम्। सुज्जो। सुनुसा। तिट्ठो।।
अर्थः-संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'र्य' 'स्न' और 'ष्ट' के स्थान पर पैशाची-भाषा में इसी क्रम से 'रिय', 'सिन' और 'सट' की प्राप्ति कहीं-कहीं पर देखी जाती है। जैसे:- (१) भार्या भारिया पत्नी। (२) स्नातम्-सिनातं-स्नान किया हुआ। धुलाया हुआ और (३) कष्टम्=कसट-पीड़ा,वेदना।।
प्रश्नः- कहीं-कहीं पर ही होते है। ऐसा क्यों कहा गया है ?
उत्तरः- क्योंकि अनेक शब्दों में 'र्य 'स्न' और 'ष्ट' होने पर भी 'रिय', 'सिन' और 'सट' की प्राप्ति हुई नहीं देखी जाती है। जैसे:- (१) सूर्यः-सुज्जो सूरज। (२) स्नुषा-सुनुसा-पुत्र-वधू। (३) तुष्टः तिठ्ठो प्रसन्न हुआ, संतुष्ट हुआ।।४-३१४।।
क्यस्येय्यः ।।४-३१५।। पैशाच्यां क्य प्रत्म्ययस्य इय्य इत्यादेशो भवति।। गिय्यते। दिय्यते। रमिय्यते। पठिय्यते।।
अर्थः-संस्कृत-भाषा में कर्मणी-प्रयोग-भावे प्रयोग के अर्थ में 'क्य'=य' प्रत्यय की प्राप्ति होती है; तदनूसार उक्त 'य' प्रत्यय के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'इय्य' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-(१) गीयते-गिय्यते-गाया जाता है। (२) दीयते-दिय्यते दिया जाता है। (३) रम्यते-रमिय्यते खेला जाता है और (४) पठयते-पठिय्यते-पढ़ा जाता है; इत्यादि।।४-३१५।।
कृगो डीरः।।४-३१६।। पैशाच्यां कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डीर इत्यादेशो भवति।। पुधुमतंसने सव्वस्सय्येव संमानं कीरते।
अर्थः- पैशाची-भाषा में कर्मणि-प्रयोग, भावे प्रयोग के अर्थ में 'कृ' धातु में 'क्य-य' प्रत्यय के स्थान पर 'डीर-ईर' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डीर' में स्थित 'डकार' इत्संज्ञक होने से 'कृ' धातु में अवस्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' का लोप हो जाता है और यों अवशेष हलन्त धातु 'क्' में उक्त 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है:- प्रथम-दर्शने सर्वस्व एवं सम्मानं क्रियते-पु धु मतंसने सव्वस्स य्येव संमानं कीरते-प्रथम में सभी का सम्मान किया जाता है।।४-३१६।।।
याद्दशादे र्दुस्तिः ।।४-३१७॥ ___ पैशाच्यां याद्दश इत्येवमादीनां द्द इत्यस्य स्थाने तिः इत्यादेशो भवति॥ यातिसो। तातिसो। केतिसो। एतिसो। कितिसो। एतिसो। भवातिसो। अञ्बातिसो। युम्हातिसो अम्हातिसो॥
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