Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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314: प्राकृत व्याकरण
अथ अपभ्रंश-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे॥४-३२९।। _अपभ्रशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः भवन्ति।। कच्चु। काच्च।। वेण। वीण।। बाह। बाहा बाहु॥ पट्ठि। पिट्ठि।। पुट्ठि॥ तणु। तिणु। तृणु।। सुकिदु। सुकिओ। सुकृदु।। किन्नओ। किलिन्नओ।। लिह। लीह। लेह।। गउरि। गोरि।। प्रायोग्रणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते, तस्यापि क्वचित् प्राकृतवत् शौरसेनी वच्च कार्य भवति।।
अर्थः- अपभ्रंश-भाषा में संस्कृत भाषा के शब्दों का रूपान्तर करने पर एक ही शब्द में एक ही स्वर के स्थान पर प्रायः विभिन्न विभिन्न स्वरों की प्राप्ति हुआ करती है और यों विभिन्न-स्वर-प्राप्ति से एक ही शब्द के अनके रूप हो जाया करते है।। क्रम से उदाहरण इस प्रकार से है:संस्कृत-शब्द अपभ्रंश-रूपान्तर
हिन्दी (१) कृत्य कच्चु और काच्च
काम। (२) वचन वेण और वीण
वचन। (३) बाहु बाह, बाहा और बाहु
भुजा। (४) पृष्ठ पट्ठि, पिट्टि और पुट्ठि
पीठ। (५) तृण तणु, तिणु और तृणु
तिनका। (६) सुकृत
सुकिदु और सुकिओ तथा सुकृदु = अच्छा काम। (७) क्ल किन्नओ तथा किलिन्नओ
गीला, भीगा हुआ। (८) लेखा लिह, लीह और लेह
लकीर चिन्ह। (९) गौरी = गरि और गोरि
सुन्दरी अथवा पार्वती।। इन उदाहरणों से विदित होता है कि अपभ्रंश-भाषा में एक ही स्वर के स्थान पर अनेक प्रकार के स्वरों की प्राप्ति हुई है। मूल-सूत्र में जो 'प्रायः' अव्यय ग्रहण किया गया है, उस का तात्पर्य यही है कि अपभ्रंश-भाषा में स्वर-सम्बन्धी जो अनेक विशेषताएं रही हुई हैं, उनका प्रदर्शन आगे आने वाले सूत्रों में किया जायगा। तदनुसार अपभ्रंश-भाषा में शब्द-रचना-प्रवृत्ति कहीं कहीं पर प्राकृत भाषा के अनुसार होती है और कहीं कहीं पर शौरसेनी-भाषा के समान भी हो जाया करती है। यह सब आगे यथास्थान पर दर्शाया जावेगा; इस तात्पर्य को प्रायः' अव्यय से मूल-सूत्र में समझाया गया है।।४-३२९।।
स्यादौ दीर्घ-हस्वौ।।४-३३०॥ अपभ्रंशे नाम्नोन्त्यस्वरस्य दीर्घ-हस्वौ स्यादौ प्रायो भवतः।। सौ॥ ढोल्ला सामला धण चम्पा-वण्णी।। णाइ सुवण्ण रेह कस-वट्टइ दिण्णी।।१।। आमन्त्रये।। ढोल्ला मई तु हुं वारिया, माकुरू दीहा माणु।। निद्दए गमिही रत्तडी, दडवड होइ विहाणु।।२।। स्त्रियाम्॥ बिट्टीए ! मइ भणिय तु हुँ, माकुरू बंकी दिट्ठि। पुत्ति ! सकण्णी भल्लि जिवँ मारइ हिअइ पइट्ठि॥३॥ जसि।। एइ ति छोड़ा, एह थलि, एह ति निसिआ खग्ग।। एत्थ मुणी सिम जाणिअइजो न वि वालइ वग्ग।।४।। एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम्।।
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