Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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326 : प्राकृत व्याकरण
तुच्छच्छ-रोमावलिहे तुच्छ-राय तुच्छयर-हासहे। पिय-वयणु अलहन्ति-अहे तुच्छकाय-वम्मइ निवासहे। अन्नु जु तुच्छउं तहे धणहे तं अक्खणह न जाइ। कटरि थणं तरू मुद्धडहे जे मणु विच्चि ण माइ।।१।। उसेः। फोडेन्ति जे हियडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवणघण। रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण।। २।।
अर्थः- अपभ्रंश भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों में पंचमी विभक्ति में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय रूप की आदेश-प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से षष्ठी विभक्ति में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस्' के स्थान पर 'हे' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति हो जाया करती है। सूत्र-संख्या ४-३४५ से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में उक्त रीति से आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'हे' का लोप भी प्रायः हो जाया करता है। इसके अतिरिक्त प्राप्तव्य प्रत्यय 'हे' की संयोजना करने के पूर्व अथवा 'हे' प्रत्यय के लोप होने के पूर्व स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य रूप से रहे हुए स्वर को हस्व से दीर्घत्व और दीर्घ से हृस्वत्व की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से जो जाया करती हैं; यों पंचमी विभक्ति के एकवचन में दो रूपों की प्राप्ति होती है और षष्ठी विभक्ति के एकवचन में चार रूपों की प्राप्ति का विधान जानना चाहिये। वृत्ति में पंचमी और षष्ठी विभक्तियों के रूपों को प्रदर्शित करने के लिये जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं; उनमें आये हुए पदों में 'हे' प्रत्यय को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। गाथाओं का संस्कृत और हिन्दी अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : तुच्छ-मध्यायाः तुच्छ जल्पन-शीलायाः।
तुच्छाच्छ रोमावल्याः तुच्छ रागायाः तुच्छतरहासायाः।। प्रियवचनमलभमानायाः तुच्छकायमन्मथनिवासायाः।। अन्यद् यत्तुच्छं तस्याः धन्यायाः तदाख्यातुं न याति।।
आश्चर्यं स्तानान्तरं मुग्धायाः येन मनो वर्त्मनि न माति।। अर्थः-सूक्ष्म अर्थात् पतली कमरवाली, अल्प बोलने के स्वभाववाली, पतले और सुन्दर केशों-वाली, अल्प कोपवाली अथवा अल्प रागवाली, बहुत थोड़ा हँसने वाली, प्रिय पति के वचनों को नहीं प्राप्त करने से दुबले शरीर वाली, जिसके पतले और सुन्दर शरीर में कामदेव ने निवास कर रखा है ऐसी; इतनी विशेषताओं वाली उस धन्य अर्थात् अहो भाग्यवाली मुग्धा नायिका का जो दूसरा भाग सूक्ष्म है-अर्थात् पतला है; उसका वर्णन नहीं जा सकता है।। अपनी चंचलता के कारण से परिभ्रमण करता हुआ जो सूक्ष्म आकृतिवाला मन विस्तृत मार्ग में भी नहीं समाता है; आश्चर्य है कि ऐसा वही मन (उक्त नायिका के) स्थूल स्तनों के मध्य में अवकाश नहीं होने पर भी वहाँ पर समा गया है। उपरोक्त अपभ्रंश पदों में षष्ठी विभक्ति-बोधक प्रत्यय 'ङस् हे' का सद्भाव स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है। अब पंचमी बोधक प्रत्यय 'हे' वाली गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : स्फोटयतः यो हृदयं आत्मीयं, तयोः परकीया का घृणा।
__ रक्षतः लोकाः आत्मानं बालायाः जातो विषमो स्तनौ।। ३।। हिन्दी:-जो (स्तन) खुद के हृदय को ही विस्फोटित करके उत्पन्न हुए हैं; उनमें दूसरों के लिये दया कैसे हो सकती हैं ? इसलिये हे लोगों ! इस बाला से अपनी रक्षा करो; इसके ये दोनों स्तन अत्यन्त विषम प्रकृति के-(घातक स्वभाव के) हो गये है।।३।। इस गाथा में 'बालहे' पद पंचमी विभक्ति एकवचन के रूप में कहा गया है।।४-३५०।।
भ्यसामो हुः॥४-३५१॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य भ्यस आमश्च हु इत्यादेशो भवति।।
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