Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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306 : प्राकृत व्याकरण
अथ पैशाची-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
ज्ञो वः पैशाच्याम्।।४-३०३।। पैशाच्या भाषायां ज्ञस्य स्थाने च भवति।। पचा। सबबा। सव्वञो। बान।। विज्ञान।।
अर्थः-पैशाची-भाषा में संस्कृत-शब्द-रूपों का रूपान्तर करने पर 'ज्ञ' के स्थान पर 'ञ' की प्राप्ति होती है। जैसेः- (१) प्रज्ञा-पञ्चा विशिष्ट बुद्धि। (२) संज्ञा-सका नाम, भावना (३) सर्वज्ञ सव्वो सब जानने वाला। (४) ज्ञानं-ञानं ज्ञान और (५) विज्ञान-विज्ञान-विज्ञान।।४-३०३।।
राज्ञो वा चित्र॥४-३०४॥ पैशाच्यां राज्ञ इति शब्दे यो ज्ञकारस्तस्य चिब् आदेशो वा भवति।। राचित्रा लपित।। रञ्बा लपित।। राचित्रों धन।। रञो धन॥ ज्ञ इत्येव। राजा।। ___ अर्थः-संस्कृत-पद 'राज्ञ' में रहे हुए 'ज्ञ' के स्थान पर पैशाची भाषा में विकल्प से 'चिब्व र्णो को आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:- राज्ञा लपितं-राचिबा लपितं वैकल्पिक पक्ष होने से रझा लपितं राजा से कहा गया है; (२) राज्ञः धनं-राविबों धनं-वैकल्पिक होने से 'रको धनं राजा का धन'।
प्रश्नः- 'ज्ञ' का उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तरः- जहां पर 'राज्ञ' से सम्बन्धित 'ज्ञ' का अभाव होगा। वहां पर 'चिब्' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे:'राज् शब्द से तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'राजा' रूप बनने पर भी इस 'राजा' पद का रूपान्तर पैशाची-भाषा में 'राजा ही होगा।' यों 'ज्ञ' की विशेष स्थिति को जानना चाहिये।।४-३०४।।
न्य-ण्यो जः।।४-३०५॥ पैशाच्यां न्यणयोः स्थाने बो भवति।। कबका। अभिमञ्जू। पुब-कम्मो। पुवाह।।
अर्थः- संस्कृत-भाषा के पदों में रहे हुए वर्ण 'न्य' और 'णय' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'जा' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) कन्यका कञ्चका-पुत्री। (२) अभिमन्यु-अभिमभू-अर्जुन पांडव का पुत्र (३) पुण्य-कर्मा=पुच-कम्मौ पवित्र कर्म करने वाला। (४) पुण्याह-पुवाह-मैं पवित्र हूँ।।४-३०५।।
णो नः॥४-३०६॥ पैशाच्यां णकारस्य नो भवति।। गुन-गन-युत्तो। गुनेन।
अर्थः-संस्कृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए 'णकार' के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'नकार' की प्राप्ति होती है। जैसे:- (१) गुणगण-युक्तः=गुन-गन-युत्तो=गुणों के समूह से युक्त। (२) गुणेनगुनेन-गुण द्वारा-गुण।।४-३०६।।
तदोस्तः ॥४-३०७।। पैशाच्यां तकार-दकारयोस्तो भवति।। तस्य। भगवती। पव्वती। सत।। दस्य मतन परवसो। सतन।। तामोतरो। पतेसो। वतनक। होतु। रमतु।। तकारस्यापि तकार विधानमादेशान्तरबाधनार्थम्। तेन पताका वेतिसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति।। __ अर्थः-संस्कृत भाषा के शब्दों में रहे हुए 'तकार वर्ण और 'दकार' वर्ण के स्थान पर पैशाची-भाषा में 'तकार' की प्राप्ति होती है। यहां पर 'तकार' के स्थान पर पुनः 'तकार' की ही आदेश-प्राप्ति बतलाने का मुख्य कारण यह है कि पाठक सूत्र-संख्या ४-२६० के विधान के अनुसार 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की अनुप्राप्ति न कर ले।। इस निर्देश के अनुसार 'पताका' के स्थान पर 'पताका' ही होगा और 'वेतिसो' के स्थान पर 'वेतिसो' ही
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