Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 285 प्राकृत-भाषा में 'झंख' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। (७) 'पडिवाल' धातु का अर्थ 'प्रतीक्षा करना' है, परन्तु फिर भी 'रक्षा करना' अर्थ में भी प्रयुक्त होती है। जैसे:- पडिवालेइ-प्रतीक्षते अथवा रक्षति-वह प्रतीक्षा करता है अथवा वह रक्षा करता है। यों प्राकृत-भाषा में ऐसी अनेक धातुऐं हैं जो कि वैकल्पिक रूप से दो-दो अर्थों को धारण करती है।।
प्राकृत-भाषा में ऐसी भी कुछ धातुऐं हैं जो उपसर्ग-युक्त होने पर अपने निश्चित अर्थ से भिन्न अर्थ को ही प्रकट करती है और ऐसी स्थिति वैकल्पिक नहीं होकर 'नित्य स्वरूप वाली है। इस संबंध में कुछ एक धातुओं के उदाहरण यों है:- (१) पइरइ=युध्यते-वह युद्ध करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'प' उपसर्ग जुड़ा हुआ है
और निश्चित अर्थ 'युद्ध करना' प्रकट करता है। (२) संहरइ-संवृणोति-वह संवरण करता है वह अच्छा चुनाव करता है। यहां पर 'हर' धातु में 'सं' उपसर्ग है और इससे अर्थ में परिवर्तन आ गया है। अणुहरइ-सदृशी भवति-वह उसके समान होता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'अणु' उपसर्ग है, जिससे अर्थ-भिन्नता उत्पन्न हो गई है। (४) नीहरइ-पुरीषोत्सर्ग करोति वह मल त्याग करता है वह टट्टी फिरता है। यहाँ पर भी 'हर' धातु में 'नी' उपसर्ग की प्राप्ति होने से अर्थान्तर दृष्टि गोचर हो रहा है। (५) विहरइ-क्रीडति-वह खेलता है-वह क्रीड़ा करता है। यहाँ पर 'हर' धातु में 'वि' उपसर्ग की संयोजना होने से 'विचरना' अर्थ के स्थान पर 'खेलना' अर्थ उत्पन्न हुआ है। आहरइ-खादति वह खाता है अथवा वह भोजन करता है। यहाँ पर आ उपसर्ग होने से 'हरण करना' अथ नहा हाकर 'भाजन करना' अथे उद्भूत हुआ है। (७) पडिहरडू पुनः पूरयति-फिर से भरता है. फिर से परिपूर्ण करता है। यहाँ पर 'पडि' उपसर्ग होने से 'खींचना' अर्थ नहीं निकल कर 'परिपर्ण करना' अर्थ निकल रहा है। (८) परिहरइ-त्यजति-वह छोड़ता है वह त्याग करता है। यहाँ पर 'हरण करना-छीनना' अर्थ के स्थान पर 'त्याग करना' अर्थ बतलाया गया है। (९) उवहरइ-पूजयति वह पूजता है वह आदर सम्मान करता है। यहां पर 'अर्पण करना' अर्थ नहीं किया जा कर 'पूजा करना' अर्थ किया गया है। (१०) वाहरइ-आहवयति-वह बुलाता है अथवा वह पुकारता है। यहाँ 'वा' उपसर्ग को जोड़ करके 'हर' धातु के 'हरण करना' अर्थ को हटा दिया गया है। (११) पवसइदेशान्तरं गच्छति-वह अन्य देश को-परदेश को जाता है। यहाँ पर 'प' उपसर्ग आने से 'वस' धातु के रहना अर्थ का निषेध कर दिया गया है। (१२) उच्चुपइ-चटति-वह चढ़ता है, वह आरूढ़ होता है, वह ऊपर बैठता है। यहाँ पर भी 'उत्-उच' उपसर्ग आने से अर्थ-भिन्नता पैदा ही गई है। (१३) उल्लुहइ-निःसरति-वह निकलता है। यहाँ पर 'उत्=उल्' उपसर्ग का सद्भाव होने से 'लुह' धातु के 'पोंछना साफ करना' अर्थ के स्थान पर 'निकलना' अर्थ बतलाया है। यों उपसर्गो के साथ में धातुओं के अर्थ में बड़ा अन्तर पड़ जाता है तथा अर्थान्तर की प्राप्ति हो जाती है। यही तात्पर्य व्याकरणकार का यहाँ पर सन्निहित है। तदनुसार इस संविधान को सदा ध्यान में रखना चाहिये।।४-५९।।
इति प्राकत-भाषा-व्याकरण-विचार-समाप्त
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