Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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288 : प्राकृत व्याकरण
आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः।।४-२६३।। शौरसेन्यामिनो नकारस्य आमन्त्रये सौ परे आकारो वा भवति॥ भो कञ्चुइआ। सुहिआ। पक्षे। भो तवस्सि। भी भणस्सि।। ___ अर्थः-'इन्' अन्त वाले शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में संबोधन-वाचक प्रत्यय 'सु' परे रहने पर 'अकार' की आदेश-प्राप्ति विकल्प से हो जाती है। जैसे:-(१) हे कञ्चुकिन्!= भो कञ्चुइआ अथवा भो कंचुइ-अरे अंतःपुर के चपरासी। (२) हे सुखिन् भो सुहिआ अथवा भो सुहि! है सुख वाले। (३) हे तपस्विन्-भो तवस्सिआ अथवा भो तवस्ति-हे तपश्चर्या करने वाले। हे मनस्विन्=भो मणास्तिआ अथवा भो मणस्सि! हे विचारवान्।। यों 'नकार' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में विकल्प से आकार की आदेश-प्राप्ति हो जाती है। पक्षान्तर में 'आ' का लोप हो जायेगा।।४ - २६३।।
मो वा।।४-२६४।। शौरसेन्यामामन्त्र्ये सौ परे नकारस्य मो वा भवति।। भो राय।। भो विअय वम्म।। सुकम्म।। भयवं कुसुमाउह। भयवं! तिथं पवत्तेह। पक्षे। सयल-लोअ-अन्ते आरि भयव हुदवह।।
अर्थः-संबोधन के एकवचन में 'सु' प्रत्यय परे रहने पर शौरसेनी भाषा में संस्कृत नकारान्त शब्दों के अन्त्य हलन्त 'नकार' का लोप हो जाता है; संबोधन वाचक-प्रत्यय का भी लोप हो जाता है और लोप होने वाले 'नकार' के स्थान पर विकल्प से हलन्त 'मकार' की प्राप्ति हो जाती है। यों शौरसेनी भाषा में नकारान्त शब्दों के संबोधन के एकवचन में दो रूप हो जाते हैं; एक तो मकारान्त रूप वाला पद और दूसरा मकारान्त रूप रहित पद्। जैसे:- हे राजन्! भो रायं अथवा भो राय हे राजा। हे विजय-वर्मन्!=भो विअय वम्म! अथवा भो विअय वम्म! हे विजय-वर्मा। हे सुकर्मन्=भो सुकम्म! अथवा भो सुकम्म! हे अच्छे कर्मो वाले। हे भगवान् कुसुभायुध भो भयवं अथवा भो भयव। कुसुमाउह! हे भगवान कामदेव। हे भगवान् तीर्थ प्रवर्तस्व-हे भयवं! (अथवा हे भयव!) तित्थं पवत्तेह-हे भगवान्! (आप) तीर्थ की प्रवृत्ति करो। हे सकल-लोक-अंतश्चारिन्! भगवान्! हुतवह! भो सयल-लोअ-अन्ते आरि! भयव! हुदवह! हे सम्पूर्ण लोक में विचरण करने वाले भगवान अग्निदेव। इन उदाहरणों में यह मत व्यक्त किया गया है कि संबोधन के एक वचन में नकारान्त शब्दो। में अन्त्य नकार के स्थान पर मकार की प्राप्ति (तदनुसार सूत्र-संख्या १-२३ से अनुस्वार की प्राप्ति) विकल्प से होती है।।४-२६४।।
भवद्भगवतोः॥४-२६५।। आमन्त्र्य इति निवृत्तम्। शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति।। किं एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि। एदु भव।। समणे भगवं महवीरे।। पज्जेंलिदो भयवं हदासणो।। क्वचिदन्यत्रापि मघवं पागसासणे। संपाइअवं सीसो। कयव।। करेमि काहं च।।
अर्थः-'संबोधन संबंधी विचारणा की तो समाप्ति हो गई है; ऐसा तात्पर्य वृत्ति में दिये गये 'निवृत्तम्' पद से जानना चाहिये।
'भवत्' तथा 'भगवत्' शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन वाचक प्रत्यय 'सु-सि' के परे रहने पर तैयार हुए 'भवान् तथा भगवान्' पदों के अन्त्य नकार के स्थान पर हलन्त 'मकार' की अर्थात् अनुस्वार की प्राप्ति होती है
और प्रथमा विभक्ति-वाचक एकवचन के प्रत्यय का लोप हो जाता है। ऐसा शौरसेनी भाषा में जानना चाहिय; तदनुसार भवान् पद का भवं रूप होता है और भगवान् पद का रूपान्तर 'भयवं' अथवा 'भगवं' होता है विशेष उदाहरण इस प्रकार है:- (१) किं अत्र भवान् हृदयेन चिन्तयति-किं एत्थ भवं हिदएण चिन्तेदि-क्या आप इस विषय में हृदय से चिंतन करते है।। (२) एतु भवान-एदु भवं आप जावे।। (३) श्रमणः भगवान् महावीरः समणे भगवं
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