Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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294 : प्राकृत व्याकरण
___ अर्थ:-'आश्चर्य' प्रकट करना हो अथवा 'खेद' प्रकट करना हो तो शौरसेनी भाषा में 'हीमाणहे' ऐसे इस अव्यय का प्रयोग किया जाता है। आश्चर्य-प्रकट करने अर्थक उदाहरण यों हैं:- अहो। जीवन्त-वत्सा मम जननी-हीमाणहे जीवन्त-वच्छा मे जणणी आश्चर्य है कि मेरी माता जीवन-पर्यत्न वात्सल्य भावना रखने वाली है। 'खेद प्रकट करने-अर्थक उदाहरण इस प्रकार से है:- हा! हा!! परिश्रान्ता अहम् एतेन निज-विधेः दुर्व्यवसितेन=हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण निय-विधेणो दुव्ववसिदेण-अरे! अरे!! खेद है कि-(बड़े दुःख कि बात है कि-) मैं अपने इस भाग्य के विपरीत चले जाने से-(तकदीर से फेर से)-बहुत ही दुःखी हूँ।। यों "हिमाणहे' अव्यय शौरसेनी भाषा में 'आश्चर्य तथा खेद' दोनों अर्थो में प्रयुक्त किया जा सकता है।।४-२८२।।
नन्वर्थ।।४-२८३।। शौरसेन्यां नन्वर्थ णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः।। णं अफलोदया। णं अय्य मिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्त।। णं भवं मे अग्गदो चलदि।। आर्षे वाक्यालंकारेपि दृश्यते। नमोत्थु ण।। जया ण॥ तया ण।।
अर्थः-संस्कृत-अव्यय "ननु" के स्थान पर शौरसेनी-भाषा में "ण" अव्यय की आदेश प्राप्ति जानना चाहिये। इस "णं" अव्यय के चार अर्थ क्रम से इस प्रकार होते हैं:- (१) अवधारण अथवा निश्चय, (२) आशंका, (३) वितर्क
और (४) प्रश्न। इन चारों अर्थों में से प्रसंगानुसार उचित अर्थ की कल्पना कर लेनी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार से है:- (१) ननु अफलोदया=णं अफलोदया मुझे राङ्गा है कि यह फलोदय वाली नहीं है ननु आर्यमिक्षैः प्रथमम्भिव आज्ञप्रभ=णं अय्य मिस्सेर्हि पढमं य्येव आणत्तं ही पज्य परूषों द्वारा (यह बात) पहिले ही फरमा दी गई है। भवान् मम (अथवा मे) अग्रतः चलति=णं भवं मे अग्गदो चलदि-निश्चय ही आप मेरे से आगे चलते है।। ___ 'ण' अव्यय आर्ष प्राकृत में "वाक्यालंकार" रूप में भी प्रयुक्त किया जाता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति में यह "ण" अव्यय अर्थ रहित ही होता है और केवल शोभा-रूप में ही इसकी उपस्थिति रहती है। जैसे:नमोऽस्तु नमोत्थु णं नमस्कार प्रणाम होवे। इसी उदाहरण में 'ण" अर्थ शून्य है और केवल शोभा रूप से ही है। (२) यदा तदा-जयाणं, तयाणं-जब तब। यहाँ पर भी “णं' अव्यय केवल शोभा के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। यों अन्यत्र भी इस "णं" अव्यय की स्थिति को स्वयमेव समझ लेना चाहिये।।४-२८३।।
अम्महे हर्षे।।४-२८४।। शौरसेन्याम् अम्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः।। अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भव॥
अर्थः- 'हर्ष व्यक्त करना हो तब शौरसेनी भाषा में 'अम्महे' ऐसे अव्यय-शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'अम्महे' ऐसा शब्द बोलने पर सुनने वाला समझता है कि वक्ता प्रसन्नता प्रकट कर रहा है- खुशी जाहिर कर रहा है। जैसे:- आहा! (ओहो) एतयासुर्मिलया सुपरिगृहीतः भवान् अम्हे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं प्रसन्नता की बात है कि इस सूर्मिला (स्त्री विशेष) से आप भली प्रकार से ग्रहण किये गये है।। यों यह हर्षेद्योतक एवं रूढ अर्थक अव्यय है।।४-२८४ ।।
ही ही विदूषकस्य।।४-२८५।। - शौरसेन्याम् ही ही इति निपातो विदूषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोक्तव्यः।। ही ही भो संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स।
अर्थः- विदूषक-जन अर्थात् राजा के साथ रहने वाला मसखरा-(व्यक्ति-विशेष) जब हर्ष प्रकट करता है तो वह 'ही ही' ऐसा शब्द बोलता है। विदूषक द्वारा 'ही ही' ऐसा बोलने पर सुनने वाले समझ जाते हैं कि यह अपना हर्ष प्रकट कर रहा है। जैसे:- अहो! अरे! अरे! संपन्ना मनोरथाः प्रियवयस्यस्य ही ही भो संपन्ना मणोरधा पिय-वयस्सस्स आहा! आहा! प्रिय मित्र के मनोरथ (मन की भावनाएँ) परिपूर्ण हो गये (अथवा हो गई) हैं।। यों 'ही ही' अव्यय का हर्षद्योतक रूढ अर्थ है। यह अव्यय केवल विदूषक-जनों द्वारा ही प्रयुक्त किया जाता है।।४-२८५।। For Private & Personal Use Only
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