Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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284 : प्राकृत व्याकरण
भांगा हुआ अथवा रोगी, बीमार। (८) नष्टः ल्हिक्को नाश पाया हुआ। (९) प्रमृष्टः पम्हटो-चोरी किया हुआ। (१०) प्रमुषितः पम्हुदो-चुराया हुआ। (११) अर्जितम् विढत्तं इकट्रा किया हुआ अथवा कमाया हुआ। पैदा किया हुआ (१२) स्पृष्टम् छित्तं-छुआ हुआ, स्पर्श किया हुआ। (१३) स्थापितम् निमिअं-स्थापित किया हुआ, रखा हुआ। (१४) आस्वादितम् चक्खिों -स्वाद लिया हुआ, चखा हुआ। (१५) लूनम् लुअं लुणा हुआ, काटा हुआ। (१६) त्यक्तम् जढं छोड़ा हुआ, त्यागा हुआ। (१७) क्षिप्तम्-झोसिअं=फेंका हुआ, छोड़ा हुआ, सेवित, आराधित।। (१८) उद्वृत्तम्-निच्छूढं-पीछे मुड़ा हुआ, निकला हुआ। (१९) पर्यस्तम्=पल्हत्थं और पलोट्टं-दूर रखा हुआ, फेंका हुआ, (२०) हेषितम्-होसमणं खंखारा हुआ, घोड़े के शब्द जैसा शब्द किया हुआ। ___कर्मणि-भूत-कृदन्त में यों कुछ एक धातुओं की अनियमित स्थिति ‘आदेश-रूप' सं जाननी चाहिये। यह स्थिति वैकल्पिक है। इस स्थिति में कर्मणि-भूत-कृदन्त-बोधक-प्रत्यय 'त-अ' धातुओं में पहिले से ही (सहजात रूप से) जुड़ा हुआ है। अतएवं 'त-अ' प्रत्यय को पुनः जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। यों ये विशेषणात्मक हैं, इसलिये संज्ञाओं के समान ही इन के रूप भी विभिन्न विभक्तियों में तथा वचनों में बनाये जा सकते है।।४-२५८।।
धातवोर्थान्तरेपि।।४-२५९।। उक्तादर्थादर्थान्तरेपि धातवो वर्तन्ते।। बलिः प्राणने पडितः खादनेपि वतंते। वलइ। खादति, प्राणनं करोति वा।। एवं कलिः संख्यानेपि। कलइ। जानाति, संख्यानं करोति वा।। रिगि गतौ प्रवेशेपि।। रिगइ। प्रविशति गच्छति वा।। कांक्षतेर्वम्फ आदेशः प्राकृते। वम्फइ। अस्यार्थः। इच्छति खादति वा।। फक्कते थक्क आदेशः। थक्कइ। नीचां गतिं करोति, विलम्बयति वा।। विलप्युपालम्भ्यो झन्ख आदेशः। झंखइ। विलपति, उपालभते भाषते वा।। एवं पडिवालेइ। प्रतीक्षते रक्षति वा।। केचित् कश्चिदुपसर्गनित्यम्। पहरइ। युध्यते।। संहरइ। संवृणोति। अणुहरइ। सदृशी भवति।। नीहरइ। पुरीषोत्सर्गे करोति।। विहरइ। क्रीड़ति।। आहरइ। खादति॥ पडिहरइ। पुनः पूरयति।। परिहरइ। त्यजति॥ उवहरइ। पूजयति॥ वाहरइ। आह्वयति॥ पवसइ। देशान्तरं गच्छति॥ उच्चुपइ चटति।। उल्लुहइ। निःसरति॥ ___ अर्थः- प्राकृत-भाषा में कुछ एक धातुएं ऐसी हैं, जो कि निश्चित अर्थ वाली होती हुई भी कभी-कभी अन्य अर्थ में भी प्रयुक्त की जाती हुई देखी जाती है। यों ऐसी धातुऐं दो अर्थ वाली हो जाती है; एक तो निश्चित अर्थ वाली और दूसरा वैकल्पिक अर्थ वाली। इन धातुओं को द्वि-अर्थक धातुओं की कोटि में गिनना चाहिये। कुछ एक उदाहरण यों है:- (१) बलइ-प्राणनं करोति अथवा खादति-वह प्राण धारण करता है अथवा वह खाता है। यहाँ पर 'बल' धातु प्राण धारण करने के अर्थ में निश्चितार्थ वाली होती हुई भी 'खाने' के अर्थ में भी प्रयुक्त हुई है। (२) कलइ-संख्यानं करोति अथवा जानाति-वह आवाज करता है अथवा वह जानता है। यहाँ पर 'कल' धातु आवाज करना अथवा गणना करना अर्थ में सुनिश्चित होती हुई भी जानना अर्थ को भी प्रकट कर रही है। (३) रिगइ-प्रविशति अथवा गच्छति-वह प्रवेश करता है अथवा वह जाता है। यहाँ पर 'रिंग' धातु प्रवेश करने के अर्थ में विख्यात होती हुई भी जाना अर्थ को भी प्रदर्शित कर रही है (४) संस्कृत-धातु 'कां' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'वम्फ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है।। यों ‘वम्फ' धातु के दो अर्थ पाये जाते हैं:- एक तो 'इच्छा करना' और दूसरा खाना-भोजन करना। जैसे:- वम्फइ-इच्छति अथवा खादति-वह इच्छा करता है अथवा वह खाता है (५) संस्कृत-धातु 'फक्क' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'थक्क' धातु-रूप की आदेश-प्राप्ति होकर इसके भी दो अर्थ देखे जाते हैं (अ) नीचे जाना और (ब) विलम्ब करना. ढील करना। इसका क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार है:- थक्कइ-नीचां गतिं करोति अथवा विलम्बयति वह नीचे जाता है अथवा वह विलम्ब करता है वह ढील करता है (६) प्राकृत-धातु 'झंख' के तीन अर्थ देखे जाते हैं:- (अ) विलाप करना, (ब) उलाहना देना, और (स) कहना-बोलना। जैसे:- झंखइ=(अ) विलपति, (ब) उपालभते, (स) भाषते वह विलाप करता है, वह उलाहना देता है अथवा वह बोलता है कहता है। यों संस्कृत-धातु 'विलप और उपालम्' के स्थान पर
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