Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 269
छिदि-भिदो न्दः॥४-२१६।। अनयोरन्त्यस्य नकाराक्रान्तो दकारो भवति।। छिन्दइ। भिन्दइ।।
अर्थः- संस्कृत-धातु 'छिद' और 'भिद्' के प्राकृत-रूपान्तर में अन्त्य 'द' के स्थान पर हलन्त 'नकार' पूर्वक 'द' अर्थात् 'न्द' की प्राप्ति होती है। जैसे:- छिनत्ति-छिन्दइ-वह छेदता है; भिनत्ति भिन्दइ-वह भेदता है अथवा वह काटता है।।४-२१६।।
युध-बुध-गृध-क्रुध-सिध-मुहां ज्झः।।४-२१७।। एषामन्त्यस्य द्विरुक्तो झो भवति।। जुज्झइ। बुज्झइ। गिज्झइ। कुज्झइ। सिज्झइ। मुज्झइ।
अर्थः- 'संस्कृत--धातु 'युध, बुध, गृध्, क्रुध्, सिध् और मुह' के अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ज्झ' व्यञ्जन की प्राप्ति होती है। इन धातुओं में अन्य वर्णों संबधों परिवर्तन पूर्वोक्त प्रथम पाद तथा द्वितीय पाद में वर्णित संविधान के अनुसार स्वयमेव समझ लेना चाहिये, तदनुसार युद्ध करने अर्थक संस्कृत-धातु 'युध्' का 'जुज्झ' हो जाता है, समझने' अर्थक संस्कृत धातु बुध के स्थान पर बुज्झ बन जाता है। आसक्त होने अर्थक संस्कृत धातु 'गृध्' के स्थान पर 'गिज्झ' की प्राप्ति हो जाती है। क्रोध करने' अर्थक धातु 'क्रुध्='कुज्झ' के रूप में परिवर्तन होता है। 'सिद्ध होना, सफल होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सिध्' 'सिज्झ मे बदल जाता है। यों 'मोहित होना' अर्थक धातु 'मुह', का 'मुज्झ' बन जाता है। इनके क्रियापदीय उदाहरण इस प्रकार हैं:- (१) युध्यते-जुज्झइ-वह युद्ध करता है, (२) बुध्यते बुज्झइवह समझता है, (३) गृध्यति=गिज्झइ-वह आसक्त होता है, (४) क्रुध्यति-कुज्झइ-वह क्रोध करता है, (५) सिध्यति-सिज्झइ-वह सिद्ध होता है अथवा वह सफल होता है और (६) मुह्यति-मुज्झइ-वह मोहित होता है।।४-२१७।।
रुधो न्ध-म्भौ च॥४-२१८॥ रुधोन्त्यस्य न्ध म्भ इत्येतो चकारात् ज्झश्च भवति।। रून्धइ। रूम्भइ। रूज्झइ।।
अर्थः- 'रोकना अर्थक संस्कृत-धातु 'रूध्' के अन्त्य व्यबजन 'ध' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'न्ध' की, अथवा 'म्भ' की प्राप्ति हो जाती है। मुल-सूत्र में 'चकार' दिया हुआ है, तदनुसार 'ध्' के स्थान पर 'ज्झ' की प्राप्ति भी सूत्र-संख्या ४-२१७ से हो जाती है; यों 'रुध्' के प्राकृत में 'रुन्ध, रुम्भ और रूज्झ' तीन रूप पाये जाते है।। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- रूणद्धि-(१) रून्धइ, (२) रूम्भइ, (३) रूज्झइ वह रोकता है।।४-२१८।।
सद-पतोर्डः॥४-२१९।। अनयोरन्तस्य डो भवति।। सडइ। पडइ।।
अर्थः- 'गल जाना अथवा सुख जाना, शक्तिहीन हो जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सद्' और 'गिरना, भ्रष्ट होना अर्थक संस्कृत-धातु 'पत्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्, त्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ड, व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- सीदति-सडइवह गल जाता है, वह सूख जाता है अथवा वह शक्तिहीन हो जाता है। पतति-पडइ-वह गिरता है अथवा वह भ्रष्ट होता है।।४-२१९।।
क्वथ-वर्धा ढः।।४-२२०॥ अनयोरन्त्यस्य ढो भवति।। कढइ। वड्डइ पवय-कलयलो।। परिअड्डइ लायण्ण।। बहुवचनाद् वृधेः कृतगुणस्य वर्धेश्चाविशेषेण ग्रहणम्॥
अर्थः- 'क्वाथ करना, उबालना, तपाना, गरम करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्वथ' के अन्त्य अक्षर 'थ्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ढ,' अक्षर की आदेश प्राप्ति होती है इसी प्रकार से 'बढ़ना, उन्नति करना' अर्थक
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