Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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270 : प्राकृत व्याकरण
संस्कृत-धातु 'वृध-वध् के अन्त्य अक्षर 'ध' के स्थान पर भी प्राकृत भाषा 'ढ' अक्षर की आदेश प्राप्ति होती है। प्राकृत-भाषा में रूपान्तरित 'कढ और वड्ड' की अन्य साधनिकाऐं स्वयमेव साध लेनी चाहिये। रूपान्तरित धातुओं के उदाहरण इस प्रकार हैं:- क्वथ्यते= (अथवा क्वथति) कढइ-वह क्वाथ करता है अथवा वह उबालता है। वर्धते प्लवक-कलकलः वड्डइ पवय-कलयलो उथल पुथल जैसा प्रचंड कोलाहल बढ़ता है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- परिवर्धते लावण्यं-परिअडइ लावण्यं सौन्दर्य बढ़ता है।
प्रश्न:- मूल-सूत्र में 'क्वथ-वर्ध' ऐसे दो शब्दों की स्थिति होते हुए भी 'वर्धा' जैसा बहुवचनात्मक क्रियापदीय रूप क्यों दिया गया है? |
उत्तर:- संस्कृत धातु -'वृर्ध' में स्थित ऋ' का क्रियापदीय रूपों में गुण विकार होकर मूल-धातु 'वर्ध' रूपों में रूपान्तरित हो जाती है और ऐसा होने से उक्त दो धातुओं के अतिरिक्त इस तीसरी धातु की भी प्राप्ति हो जाती है:यों सामान्य रूप से तीनों धातओं को ध्यान में रखकर ही मल-सत्र में बहवचन का प्रयोग किया गया है। यही बहुवचन-ग्रहण का तात्पर्य है। ऐसा स्पष्टीकरण वृत्ति में भी किया गया है।।४-२२०।।
वेष्टः ॥४-२२१॥ वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः क ग ट ड इत्यादिना (२-७७) ष लोपेऽन्त्यस्य ढो भवति॥ वेढइ। वेढिज्जइ।।
अर्थः- 'लपेटना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वेष्ट्र में स्थित हलन्त 'षकार' व्यञ्जन का सूत्र-संख्या २-७७ से लोप हो जाने के पश्चात्, शेष रहे हुए धातु-रूप 'वेट' के 'टकार' व्यञ्जन के स्थान पर ढकार व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाती है। जैसेः- वेष्टते वेढइ-लपेटता है अथवा वह घेरता है। दूसरा उदाहरण यों है:- वेष्ट्यते वेढिज्जइ-उससे लपेटा जाता है।।४-२२१।।
समोल्लः ।।४- २२२॥ संपूर्वस्य वेष्टतेरन्त्यस्य द्विरुक्त लो भवति।। संवेल्लइ।।
अर्थः- 'सं' उपसर्ग साथ में होने पर 'वेष्ट धातु में 'षकार' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'टकार' के स्थान पर द्वित्व रूप से 'ल्ल' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से होती है। जैसे:संवष्टेते संवेल्लइ-वह (अच्छी तरह से) लपेटता है।।४-२२२।।
वोदः॥४-२२३।। उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति।। उव्वेल्लइ। उव्वेढइ॥
अर्थः- 'उत्' उपसर्ग साथ में होने पर 'वेष्ट धातु में स्थित 'षकार' का लोप हो जाने के पश्चात् शेष रहे हुए अन्त्य वर्ण 'टकार' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व रूप से 'ल्ल' की प्राप्ति प्राकृत-भाषा में आदेश रूप से होती है। जैसे:- उद्वेष्टते उव्वेढइ अथवा उव्वेल्लइ-वह बंधन मुक्त करता है, अथवा वह पृथक् करता है।।४-२२३।।।
स्विदां ज्जः।।४-२२४|| स्विदि प्रकाराणमन्त्यस्य द्विरुक्तो जो भवति।। सव्वङ्ग-सिज्जिरीए। संपज्जइ। खिज्जइ।। वहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम्॥
अर्थः- 'पसीना होना' अर्थक स।। स्कृत-धातु 'स्विद्' तथा 'सम्पन्न होना, सिद्ध होना, मिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'संपद्' और 'खेद करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिद' इत्यादि ऐसी धातु के अन्त्य व्यञ्जन 'द' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में द्वित्व रूप से 'ज्ज' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:सर्वाङ्ग-स्वेदनशीलायाः सव्वङ्ग-सिज्जिरीए सभी अंगों मे पसीने वाली का। संपद्यते-संपज्जइ-वह सम्पन्न होता है अथवा वह मिलता है। खिद्यति-खिज्जइ-वह खेद करता है अथवा वह अफसोस करता है।
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