Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
268 : प्राकृत व्याकरण
रुद-भुज-मुचां तोऽन्त्यस्य।।४-२१२।। एषामन्त्यस्य क्त्वा-तुम्-तव्येषु तो भवति।। रोत्तूण। रोत्तुं। रोत्तव्व।। भोत्तूण। भोत्तुं॥ भोत्तव्व।। मोत्तूण। मोत्तूं मोत्तव्व। ____ अर्थः- 'संस्कृत-धातु 'रूद्-रोना, भुज् खाना और मुच-छोड़ना' के प्राकृत-रूपान्तर में संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगाने पर धातुओं के अन्त में रहे हुए 'द' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'त' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति होती है। जैसे:- रूद्रू त्, भुज=भुत और मुच=मुत।
उपर्युक्त परिवर्तन के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रहे कि सूत्र संख्या ४-२३७ के विधान से उपयुक्त धातुओं में आदि अक्षरों में रहे हुए 'उ' स्वर को गुण-अवस्था प्राप्त होकर 'ओ' स्वर की प्राप्ति हो जाती है। यों प्राकृत-रूपान्तर में 'रुद्' का रोत्' का 'भुज का भोत्' और 'मुच का मोत्' हो जाता है।। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:(१) रूदित्वा रोत्तूण-रो करके, रूदन करके (२) रोदितुम रोत्तुं रोने के लिये, रूदन करने के लिये और (३) रूदितव्यम्=रोत्तव्वं-रोना चाहिये अथवा रोने के योग्य है। (४) भुक्त्वा -भोत्त्ण-खा करके अथवा भोजन करके, (५) भोक्तुम-भात्तुं खाने के लिये अथवा भोजन करने के लिये (६) भोक्तव्यम्=भोत्तव्वं खाना चाहिये अथवा खाना के योग्य है। (७) मुक्त्वा =मोत्त्ण-छोड़ करके, त्याग करके (८) मोक्तुम्=मोत्तुं-छोड़ने के लिये अथवा त्याग करने के लिये (९) मोक्तव्यम्=मोत्तव्वं छोड़ना चाहिये अथवा छोड़ने के योग्य है।।४-२१२।।
दृशस्तेन ट्ठः॥४-२१३।। द्दषोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति।। दठूण। दर्छ। दट्ठव्व॥
अर्थः- 'संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्ययों की संयोजना होने पर संस्कृत-धातु 'दृश' के प्राकृत-रूपान्तर में 'त' सहित अन्त्यव्यञ्जन के स्थान पर द्वित्व '8' की प्राप्ति होती है। जैसे:धष्ट्वा-दठूण-देख करके, द्रष्टुंदटुं-देखने के लिये और द्रष्टव्यम्=दट्ठव्वं-देखना चाहिये अथवा देखने के योग्य।।४-२१३।।
आ कृगो भूत-भविष्यतोश्च।।४-२१४॥ कृगोन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति।। भूत-भविष्यत् कालयोश्चकारात् क्त्वा-तुम्-तव्येषु च। काही। अकार्षीत्। अकरोत्। चकार वा।। काहिइ। करिष्यति। कर्ता वा।। क्त्वा। काउण। तुम्, काउ॥ तव्या कायव्व।। __ अर्थः- 'संबंधार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगने पर तथा भूतकालीन तथा भविष्यत् कालीन प्रत्यय लगने पर संस्कृत-धातु 'कृग'='कृ', के अन्त्यस्वर 'ऋ के स्थान पर 'आ' स्वर की प्राप्ति होती है। उक्त रीति से प्राकृत-भाषा में रूपान्तरित 'का' धातु के पांचों क्रियापदीय रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) कृत्वा-काऊण करके, (२) कर्तुम्-काउं-करने के लिये, कर्तव्यं कायव्वं करना चाहिये अथवा करने के योग्य, अकार्षीत्-(अकरोत् अथवा चकार) काहीअ-उसने किया, करिष्यति (अथवा कर्ता)=काहइ-वह करेगा, (अथवा वह करने वाला है) यों 'करने' अर्थक प्राकृत-धातु 'का' का स्वरूप। जानना चाहिये।।४-२१४ ।।
गमिष्यमासां छः।।४-२१५॥ एषामन्त्यस्य छो भवति।। गच्छइ। इच्छइ। जच्छइ। अच्छइ।।
अर्थः- 'प्राकृत-भाषा में संस्कृत-धातु 'गम्, इष्, यम् और आस्' मे स्थित अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। यों 'गम् का गच्छ', 'इष का इच्छ', 'यम् का जच्छ' और 'आस् का अच्छ' हो जाता है। इनके उदाहरण यों हैं:- (१) गच्छतिगच्छइ-वह जाता है, (२) इच्छति-इच्छइ-वह इच्छा करता है, वह चाहना करता है, (३) यच्छति-जच्छइ-वह विराम करता है, वह ठहरता है अथवा वह देता है, आस्ते अच्छइ-वह उपस्थित होता है अथवा वह बैठता है।।४-२१५।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org