Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 265
'परि' उपसर्ग के साथ 'संस्' के स्थान पर आदेश प्राप्त 'ल्हस' धातु का रूप 'परिरल्हस' भी बनता है। इसका उदाहरण इस प्रकार है:- सलिल-वसनं पिरस्रंसते-सलिल-वसणं परिल्हसइ-पानी वाला (अथवा पानी में रहा हुआ) कपड़ा खिसकता है अथवा सरकता है।।४-१९७।।
त्रसेडेर बोज्ज वज्जाः ॥४-१९८॥ सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। डरइ। बोज्जइ। वज्जइ। तसइ। अर्थः- 'डरना, भय खाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'त्रस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'डर, बोज्ज, और वज्ज' ऐसे तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तस' भी होता है। उक्त चारों धातु-रूपों के उदाहरण इस प्रकार हैं:- त्रस्यति= (१) डरइ, (२) बोज्जइ, (३) वज्जइ, और (४) तसइ-वह डरता है अथवा वह भय खाता है।।४-१९८।।
न्यसोणिम–णुमो॥४-१९९।। न्यस्यतेरतावदेशो भवतः।। णिमइ। णुमइ।।
अर्थः- 'स्थापना करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नि+अस् के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'णिम' और णुम ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। दोनों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- न्यस्यति-णिमइ तथा णुमइ-वह स्थापना करता है, वह रखता है अथवा वह धरता है।।४-१९९।।
पर्यसः पलोट-पल्लट-पल्हत्थाः ।।४-२००।। पर्यस्येतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति।। पलोट्टइ। पल्लट्टइ। पल्हत्थइ।।
अर्थः- 'फेंकना, मार गिराना' अथवा 'पलटना विपरीत होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'परि+अस्=पर्यस्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है, जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) पलोट्ट, (२) पल्लट्ट, और (३) पल्हस्थ। तीनो के उदाहरण यों हैं:- पर्यस्यति=(१) पलोट्टइ (२) पल्लइट्टइ और (३) पल्हत्थइ-वह पलटता है, अथवा वह विपरीत होता है।।४-२००।।
निःश्वसे झङ्खः।।४-२०१।। निःश्वसेझंट इत्यादेशो वा भवति।। झंखइ। नीससइ।
अर्थः- 'निःश्वास लेना' अथवा 'नीसासा डालना' अर्थक संस्कृत-धातु 'निर्+श्वस्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'झंख' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'नीसस' भी होता है। जैसे:निःश्वसिति-झंखइ अथवा नीससइ-वह निःश्वास लेता है अथवा वह नीसासा डालता है।।४-२०१।।
उल्लसे रूस लोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुञ्जोल्लारोआः।।४-२०२।।
उल्लसेरेते षडादेशा वा भवन्ति।। ऊसलइ। ऊसुम्भई। णिल्लसइ। पुलआअइ। गुजोल्लइ। हस्वत्वे तु गुजुल्लइ। आरोअइ। उल्लसइ।।
अर्थः- 'उल्लसित होना, आनंदित होना, खुश होना, तेज होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत्+लस्=उल्लस्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:(१) ऊसल, (२) ऊसुम्भ, (३) णिल्लस, (४) पुलआअ, (५) गुञ्जोल्ल और (६) आरो।
सूत्र-संख्या १-८४ से 'गुंजोल्ल' धातु-रूप में रहे हुए दीर्घ स्वर 'ओ' के स्थान पर आगे संयक्त व्यबजन 'ल्ल' होने कारण से 'उ' की प्राप्ति विकल्प से हो जाती है, तदनुसार 'गुंजोल्ल' के स्थान पर 'गुंजुल्ल' रूप की अवस्थिति
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