Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 255 क्रम से इस प्रकार हैं:- वेपते= (१) आयम्बइ, (२) आयज्झइ अथवा (३) वेवइ-वह कांपती है, वह हिलता है अथवा वह थरथराती है।। ४-१४७।।
विलपेझङ्ख-वडवडौ ।। ४-१४८।। विलपेझंख-वडवड इत्यादेशो वा भवतः।। झंखइ। वडवडइ। विलवइ।।
अर्थः- 'विलाप करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+लप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा से 'झंख और वडवड' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विलव' भी होगा। जैसे-विलपति= (१) झंखइ, (२) वडवडइ और (३) विलवइ= वह विलाप करता है, वह जोर-जोर से रूदन करती है।। ४-१४८।।
लिपो लिम्पः।। ४-१४९।। लिम्पतेर्लिम्प इत्यादेशो भवति।। लिम्पइ।।
अर्थः- 'लीपना, लेप करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लिप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'लिम्प' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- लिम्पति लिम्पइ = वह लिपती है, वह लेप करता है।। ४-१४९।।
गुप्येर्विर-णडौ।। ४-१५०॥ गुप्यतेरेतावादेशो वा भवतः।। विरइ। णडइ। पक्षे। गुप्पइ।।
अर्थः- 'व्याकुल होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'गुप्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विर' और 'णड' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गुप्प' भी होता है। जैसे:- गुप्यति-विरइ, णडइ अथवा गुप्पइ-वह व्याकुल होता है, वह घबड़ाती है।।४-१५०।।
क्रपो वहो णिः।।४-१५१।। कृपे अवह इत्यादेशो ण्यन्तो भवति ॥ अवहावेइ। कृपां करोतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'कृपा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रप्' के स्थान पर 'प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णिच' पूर्वक प्राकृत भाषा में 'अवह+आवे' =अवहावे रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- कृपां करोति अथवा क्रपते अवहावेइ-वह कृपा करता है, वह दया करती है।। ४-१५१।।
प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काब्भुत्ता।। ४-१५२॥ प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति।। तेअवइ। सन्दुमइ। सन्धुक्कइ। अब्भुत्तइ। पलीवइ।।
अर्थः- ‘जलाना सुलगाना' अथवा 'प्रकाशित होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्र+दीप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से चार धातु-(रूपों) की आदेश प्राप्ति होती है। (१) तेअव, (२) संदुम, (३) संधुक्क और (४) अब्भुत्त। वैकल्पिक, पक्ष होने से 'पलीब' भी होगा। जैसे:- प्रदीप्यते, = (१) तेअवइ (२) सन्दुमइ, (३) सन्धुक्कइ, (४) अब्भुत्तइ पक्षान्तर में पलीवइ=वह प्रकाशित होता है अथवा वह जलाती है, वह सुलगाती है ।। ४-१५२।।
लुभेः संभावः।। ४-१५३।। लुभ्यतेः संभाव इत्यादेशो वा भवति ।। संभावइ। लुब्भइ।।
अर्थः- 'लोभ करना, आसक्ति करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लुभ्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'संभाव' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'लुब्भ' भी होता है। जैसे- लुभ्यति-संभावइ अथवा लुब्भइ= वह लोभ करता है, वह आसक्ति करती है।। ४-१५३।।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org