Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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260 : प्राकृत व्याकरण रूप से 'तूर' होता है। जैसे:- त्वरति अथवा त्वरते-तूरइ-वह जल्दी करता है, वह शीघ्रता करता है। त्वरन्-तूरन्तो (अथवा तूरमाणो) जल्दी करता हुआ। यों तूर' के अन्य रूपों की भी स्वयमेव साधना कर लेनी चाहिये॥ ४-१७१।।
तुरो त्यादौ ॥४-१७२।। त्वरो त्यादो तुर आदेशो भवति ।। तुरिओ। तुरन्तो।।
अर्थः- 'शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'त्वर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'ति-इ' आदि काल बोधक प्रत्यय तथा कृदन्त आदि बोधक प्रत्यय आगे रहने पर 'तुर' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे:- त्वरितः तुरओ-शीघ्रता किया हुआ। त्वरन् =तुरन्तो= शीघ्रता करता हुआ। यों अन्य रूपों की भी स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये।। ४-१७२।।
क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच्चड-णिच्चल-णि?आः।। ४-१७३।। क्षरेरेते षड् आदेशा भवन्ति ।। खिरइ । झरइ। पज्झरइ। पच्चडइ। णिच्चलइ। णिटुअइ।।
अर्थः- "गिरना, गिर पड़ना, टपकना, झरना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्षर' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) खिर, (२) झर, (३) पज्झर, (४) एच्चड, (५) णिच्चल और (६) णिटुं। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) क्षरति= (१) खिरइ, (२) झरइ, (३) पज्झरइ, (४) पच्चडइ, (५) णिच्चलइ और (६) णिटुट्अइ= वह गिर पड़ता है, वह टपकता है अथवा वह झरता है ।। ४-१७३।।
उच्छल उत्थल्लः ।। ४-१७४।। उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति ।। उत्थल्लइ ।। अर्थः- "उछलना, कूदना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत्+ शल्-उच्छल्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'उत्थल्ल' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- उच्छलति-उत्थल्लइ-वह उछलता है अथवा वह कूदता है ।। ४-१७४।।
विगलेस्थिप्प-गिटुहौ ।। ४-१७५।। विगलतेरेतावादेशौ वा भवतः ॥ थिप्पइ। णिटुहइ । विगलइ।। अर्थः- 'गलजाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि-गल्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'थिप्प और णिटुह' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'विगल' भी होता है। तीनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-विगलति= (१) थिप्पइ, (२) णिटटुहइ, और (३) विगलइ= वह गल जाता है, वह जीर्ण-शीर्ण हो जाता है।।४-१७५।।
दलि-वल्योर्विसट्ट-वम्फो।। ४-१७६॥ दले वेलेश्च यथासंख्यं विसट्ट वम्फ इत्यादेशौ वा भवतः। विसट्टइ। वम्फइ। पक्षे। दलइ। वलइ।। __ अर्थ:- ‘फटना, टूटना, टुकड़े-टुकड़े होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दल' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प स 'विसट्ट' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'दल' भी होता है। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से यों है:-दलति= विसट्टइ अथवा दलइ =वह फटता है, वह टूटता है अथवा वह टुकड़े-टुकड़े होता है। ___ 'लौटना, वापिस आना, अथवा मुड़ना, टेड़ा होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वल' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वम्फ' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। वैकल्पिक होने से 'वल' भी होता है। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- वलति-वम्पइ अथवा वलइ-वह लौटता है, अथवा वह टेढ़ा होता है ।। ४-१७६।।
भ्रंशः फिड-फिट-फुड-फुट-चुक्क-भल्लाः ॥ ४-१७७॥ भ्रंशेरेते षडादेशा वा भवन्ति। फिडइ। फिट्टइ।। फुडइ। फुटइ। चुक्कइ।भुल्लइ। पक्षे। भंसइ।
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