Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 261 अर्थः- 'फुटना, फटना, टुटना अथवा नष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भ्रंश' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) फिड, (२) फिट्ट, (३) फुड, (४) फुट, (५) चुक्क, और (६) भुल्ल। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में संस्कृत-धातु-रूप 'भ्रंश' का प्राकृत-रूपान्तर 'भंस' भी होता है। उक्त सातों प्रकार के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं :- भ्रश्पते (अथवा भ्रंश्यति)= (१) फिडइ, (२) फिट्टइ, (३) फुडइ, (४) फुटइ, (५) चुक्कइ, (६) भुल्लइ, और (७) भंसइ-वह फूटता है, वह फटता है टूटता है अथवा वह नष्ट-भ्रष्ट होता है।। ४-१७७।।।
नशेर्णिरणास-णिवहावसेह-पड़िसा-सेहावहराः ।। ४–१७८।। नशेरेते षडादेशा वा भवन्ति। णिरणासइ। णिवहइ। अवसेहइ। पडिसा। सेहइ। अवहरइ। पक्षे। नस्सइ।।
अर्थः- 'पलायन करना, भागना' अर्थक संस्कृत धातु 'नश के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से छह धातु-रूपों की आदेशप्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) णिरणास (२) णिवह, (३) अवसेह, (४) पड़िसा, (५) सेह और (६) अवहर। वैकल्पिक पक्ष होने स 'नस्स' भी होता है। यों उक्त एकार्थक सातों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- नश्यति= (१) णिरणासइ, (२) णिवहइ, (३) अवसेहइ, (४) पडिसाइ, (५) सेहइ, (६) अवहरइ और (७) नस्सइ-वह पलायन करता है अथवा वह भागता है ।। ४-१७८।।
आवात्काशोवासः ।। ४-१७९।। अवात् परस्य काशो वास इत्यादेशो भवति ॥ ओवासइ।।।
अर्थः- 'अव' उपसर्ग के साथ रही हुई संस्कृत-धातु 'काश' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'अव+कारा' का 'ओवास' रूपान्तर होता है। जैसे:- अवकाशति-ओवसइ-वह शोभा है अथवा वह विराजित होता है।। ४-१७९।।
संदिशेरप्पाहः ॥ ४-१८०॥ संदिशतेरप्पाह इत्यादेशौ वा भवति।। अप्पाहइ। संदिसइ।।
अर्थः- 'संदेश देना, खबर पहुँचाना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+दिर के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'अप्पाह' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संदिस' भी होता है। जैसे:- सदिशति= " अप्पहइ अथवा संदसिइ-वह संदेश देता है अथवा वह खबर पहुँचाता है। ।। ४-१८०।। दृशो निअच्छा पेच्छा वयच्छाव यज्झ-वज्ज-सव्वव-देखो-अक्खावखाव
अक्ख-पुलोअ-पुलअ-निआव आस-पासाः ।।४-१८१॥ दृशेरेते पञ्चदशादेशा भवन्ति।। निअच्छइ। पेच्छइ। अवयच्छइ। अवयज्झइ। वज्जइ। सव्ववइ। देक्खइ ओअक्खइ। अवक्खई। अवअक्खई। पुलोएइ। पुलएइ। निअइ। अवआसइ। पासइ।। निज्झाअइ इति तु निध्यायतेः स्वरादत्यन्ते भविष्यति।।
अर्थः- 'देखना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दृश्=पश्य' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में पन्द्रह धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) निअच्छ, (२) पेच्छ, (३) अवयच्छ, (४) अवयज्झ, (५) वज्ज; (६) सव्वव, (७) देख, (८) ओअक्ख, (९) अवक्ख (१०) अवअक्ख, (११) पुलोए, (१२) पुलए, (१३) निअ, (१४) अवआस और (१५) पास।।४-१८१।।
प्राकृत-धातु 'निज्झा' की प्राप्ति तो संस्कृत-धातु 'नि+ध्यै' के आधार से होती है। उक्त रूप से प्राप्त प्राकृततु 'निज्झा' आकारान्त होने से स्वरान्त है और इसलिये सूत्र संख्या ४-२४० से इसमें काल-बोधक प्रत्ययों की संयोजना करने के पूर्व विकल्प से 'अ' विकरण-प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस धातु का काल बोधक प्रत्यय सहित उदाहरण इस प्रकार है:-निध्यायति-निज्झाअइ (अथवा निज्झाइ)=वह देखता है अथवा वह निरीक्षण करता है।
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