Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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256 : प्राकृत व्याकरण
क्षुभेः खउर-पड्डुहौ।। ४-१५४।। क्षुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशो वा भवतः।। खउरइ पड्डुहइ। खुब्भइ।।
अर्थः- 'क्षुब्ध होना , डर से विह्वल होना' अर्थक संस्कृत धातु 'क्षुम्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'खउर तथा पड्डुह' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'खुब्भ' भी होता है। जैसे:- क्षुभ्यति खउरइ, पड्डुहइ अथवा खुब्भइ-वह क्षुब्ध होता है, वह डर से विह्वल होती है।। ४-१५४।।
आङो रभे रम्भ-ढवौ ।। ४-१५५।। आङः परस्य रभे रम्भ ढव इत्यादेशो वा भवतः।। आरम्भइ। आढवइ। आरभइ।।
अर्थः- 'आ' उपसर्ग संस्कृत-धातु 'रभ्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'आरम्भ और आढव' ऐसे दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'आरभ भी होता है। जैसे:- आरभते= आरम्भइ, (२) आढवइ, और (३) आरभइ-वह आरम्भ करता है, वह शुरू करती है ।। ४-१५५।।
उपालम्भे झंख-पच्चार-वेलवाः ।। ४-१५६।। उपालम्भेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। झंखइ । पच्चारइ। वेलवइ। उवालम्भइ।।
अर्थः- 'उपालम्भ देना, उलाहना देना, ठपका देना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उपा+लंभ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन (धात रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि कम से इस प्रकार हैं:- (१)
(२) पच्चार, और (३) वेलव। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उवालम्भ' भी होता है। जैसे :- उपालम्भते= (१) झंखइ, (२) पच्चारइ, (३) वेलवइ। पक्षान्तर में उवालम्भइ वह उपालम्भ देती है अथवा वह उलाहना देता है।। ४-१५६।।
अवेर्जुम्भो जम्भा।। ४-१५७।। जृम्भेर्जम्मा इत्यादेशौ भवति वेस्तु न भवति।। जम्भाइ। जम्भाअइ। अवेरिति किम्। केलि-पसरो विअम्भइ।।
अर्थः- 'जभाइ लेना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जृम्भ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जम्भा अथवा जम्भाअ (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- जृम्भते = जम्भाइ अथवा जम्भाअइ-वह जम्भाई लेता है।
उपर्युक्त संस्कृत-धातु 'जृम्भ' में यदि 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो 'जम्भ' के स्थान पर 'जम्भा अथवा जम्भाअ धातु-रूप की आदेश प्राप्ति नहीं होगी। ऐसे समय में 'वि+जृम्भ' संस्कृत धातु-रूप का प्राकृत-रूपान्तर 'विअम्भ' होगा। ऐसी स्थिति होने के कारण वि उपसर्ग का 'विधि-निषेध' प्रदर्शित किया गया है। जैसे:- केलि-प्रसरः विजृम्भते-केलि-पसरो विअम्भइ-कदली-पौधा का फैलाव विकसित होता है ।।४-१५७।।
भाराक्रान्ते नमे, र्णिसुढः ।।४-१५८।। भाराक्रान्ते कर्तरि नमेर्णिसुढ़ इत्यादशौ भवति। र्णिसुढइ। पक्षे। णवइ। भाराक्रान्तो नमतीत्यर्थः।।
अर्थः- 'भार से आक्रान्त होकर-दबाव पड़कर-नीचे नमना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'णिसुद' (धातु-रूप) की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भाराक्रान्तो नमति= णिसुढ़इ-बोझ के कारण वह नमती है, अथवा झुकता है। कभी-कभी इसी अर्थ में 'नम' का ‘णव' ऐसे प्राकृत-रूपान्तर भी कर लिया जाता है। जैसे:नमति=णवइ।। ४-१५८।।
विश्रमे र्णिव्वा ।। ४-१५९।। विश्राम्यते र्णिव्वा इत्यादेशौ वा भवति ॥ णिव्वाइ।। वीसमइ।।
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