Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 219 क्रियापद के रूप हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर समुच्चय रूप से प्राकृत में एक रूप होज्ज होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६० से संस्कृत में प्राप्त धातु 'भू=भव् के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की प्राप्ति और ३-१७७ की वृत्ति से उक्त दस ही लकारों के अर्थ में संस्कृत सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल 'ज्ज' प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर उक्त दस लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राकृत क्रियापद का रूप 'होज्ज' सिद्ध हो जाता है। ३-१७७।
मध्ये च स्वरान्ताद्वा ॥३-१७८।। स्वरान्ताद्वातोः प्रकृति प्रत्यययोर्मध्ये चकारात् प्रत्ययानां च स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतो वा भवतः वर्तमाना भविष्यन्त्योर्विध्यादिषु च।। वर्तमाना। होज्जइ। होज्जाइ। होज्जा होज्जा। पक्षे। होई।। एवं होज्जसि। होज्जासि। होज्जा होज्जा।। पक्षे। होसि इत्यादि।। भविष्यन्ति। होज्जहिइ। होज्जाहिइ। होज्जा होज्जा। पक्षे। होहिइ।। एवं होज्जहिसि। होज्जाहिसि। होज्ज। होज्जा। होहिसि। होज्जहिमि। होज्जाहिमि। होज्जस्सामि। होज्जहामि। होज्जस्सं। होज्ज होज्जा। इत्यादि।। विध्यादिषु। होज्जउ। होज्जाउ। होज्ज। होज्जा। भवतु भवेद्वेत्यर्थः पक्षे। होउ।। स्वरान्तादितिकिम्। हसेज्ज। हसेज्जा। तुवरेज्ज तुवरेज्जा।।
अर्थः- प्राकृत भाषा में जो स्वरान्त धातुएं हैं; उन स्वरान्त धातुओं के मूल अंग और संयोजित किये जाने वाले वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक के प्रत्यय इन दोनों के मध्य में-वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति (विकरण प्रत्यय जैसे रूप से) हुआ करती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वर्तमानकाल के, भविष्यत्काल के, आज्ञार्थक और विधिअर्थक के बोधक प्राप्त प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' की आदेश प्राप्ति भी हुआ करती है। निष्कर्ष रूप से वक्तव्य यह है कि स्वरान्त धातु और उक्त लकारों के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्ययों के मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। तथा कभी-कभी उक्त लकारों के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के पुरुष बोधक तथा सभी प्रकार के वचन बोधक प्रत्ययों के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से 'ज्ज अथवा ज्जा' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उक्त लकारों से सम्बन्धित उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं; सर्व-प्रथम वर्तमानकाल के उदाहरण दिये जा रहे हैं:- भवति होज्जइ, होज्जाइ; होज्ज तथा होज्जा; वैकल्पिक-पक्ष होने से पक्षान्तर में 'होइ' भी होता है। भवसि-होज्जसि, होज्जासि; होज्ज तथा होज्जा; वैकल्पिक-पक्ष होने से पक्षान्तर में होसि' भी होता है। उपर्युक्त दोनों उदाहरण क्रम से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के तथा द्वितीय पुरुष के एकवचन के हैं। अब भविष्यत्काल के उदाहरण प्रदर्शित किये जा रहे हैं:- भविष्यसित होज्जहिइ, होज्जाहिइ, होज्ज तथा होज्जा। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने के कारण से पक्षान्तर में 'होहिइ' रूप भी होता है। इनका हिन्दी-अर्थ होता है। वह होगा अथवा वह होगी। दूसरा उदाहरण भविष्यति होज्जहिसि, होज्जाहिसि, होज्ज तथा होज्जा। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में होहिसि रूप का सद्भाव होगा। इनका हिन्दी अर्थ होता है:-तू होगा अथवा तू होगी। तीसरा उदाहरण:- भविष्यामि होज्जहिमि, होज्जाहिमि; होज्जस्सामि, होज्जहामि; होज्जस्सं, होज्ज तथा होज्जा, पक्षान्तर में होहिमि भी होता है। इनका अर्थ यह है कि:- मैं होऊँगा अथवा मैं होऊँगी। ___ आज्ञार्थक और विधि-अर्थक के उदाहरण इस प्रकार हैं:- भवतु और भवेत् होज्जउ, होज्जाउ; होज्ज तथा होज्जा; होज्जा; पक्षान्तर में 'होउ' भी होता है। इनका यह अर्थ है कि-वह हो अथवा वह होवे। इन उदाहरणों से यह विदित होता है कि वैकल्पिक रूप से स्वरान्त धात और प्रत्यय के मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा'की प्राप्ति हई
स्वरान्त धातु आर प्रत्यय क मध्य में 'ज्ज अथवा ज्जा' की प्राप्ति हुई है तथा पक्षान्तर में प्रत्ययों के स्थान पर ही 'ज्ज अथवा ज्जा' का आदेश हो गया है। साथ में यह भी बतला दिया गया है कि उपर्युक्त दोनों विधि-विधान वैकल्पिक स्थित वाले होने से तृतीय अवस्था में न तो 'ज्ज अथवा ज्जा' का धातु और प्रत्यय के मध्य में आगम ही हुआ है और न प्रत्ययों के स्थान पर आदेश ही हुआ है; किन्तु पूर्व-सूत्रों में वर्णित सर्व-सामान्य रूप से उपलब्ध लकारबोधक प्रत्ययों की ही प्राप्ति हुई है। यों तीनों प्रकार की स्थित का क्रमशः उपयोग किया गया है; जो कि ध्यान देने योग्य है।
प्रश्नः- मूल सूत्र में 'स्वरान्त' पद का उपयोग करके ऐसा विधान क्यों बनाया गया है कि केवल स्वरान्त धातु और प्राप्त लकार-बोधक प्रत्ययों के मध्य में ही 'ज्ज अथवा ज्जा' का वैकल्पिक रूप से आगम होता है?
उत्तरः- जो धातु स्वरान्त नहीं होकर व्यञ्जनान्त हैं; उनमें मूल धातु अंग और प्राप्त लकारबोधक प्रत्ययों के मध्य में
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