Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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240 : प्राकृत व्याकरण
अर्थः- पृथक अर्थात् अलग करने के अर्थ में और स्पष्टीकरण करने के अर्थ में 'भू भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'णिव्वड' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- पृथग्भवति अथवा स्पष्टो भवति-णिव्वडइ-वह अलग होता है अथवा वह स्पष्ट होता है ।।४-६२।।
प्रभो हुप्पो वा ।।४-६३।। प्रभु कर्तृकस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति।। प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यैवार्थः। अङ्गे च्चिअ न पहुप्पइ। पक्षे। पभवेइ।। __ अर्थ:- जब 'भू-भव्' धातु के साथ में 'प्र' उपसर्ग जुड़ा हुआ हो और जब 'प्र' उपसर्ग का अर्थ शक्ति-सम्पन्नता हो तो ऐसे समय में 'प्र+भव' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हुप्प' आदेश की प्राप्ति होगी। इसका तात्पर्य यही है कि 'शक्ति-सम्पन्नता' अर्थ पूर्वक 'भू-भव' धातु को विकल्प से 'हुप्प' आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'पभव' प्राप्ति का भी संविधान जानना चाहिये। जैसे-हे अंगे! चैव न प्रभवति हे सुन्दर अंगों वाली! निश्चय ही वह शक्ति सम्पन्न नहीं होता है। इसका प्राकृत-रूपान्तर इस प्रकार है:- अंगे! च्चिअ न पहुप्पइ। पक्षान्तर में पहुप्पइ' के स्थान पर 'पभवेइ' रूप भी बनता है।।४-६३।।
क्ते हूः।।४-६४।। भुवःक्त प्रत्यये हूरादेशो भवति।। हू। अणुहूआ पहू।।
अर्थः- कर्मणि भूतकृदन्त प्रत्यय 'क्त-त' के साथ में 'भू' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में हु' धातु की आदेश । प्राप्ति होती है। जैसे-भूतम्-हूअं-हुआ। अन्य उपसर्ग पूर्वक 'भू' धातु के उदाहरण इस प्रकार हैं:
(१) अनुभूतम् अणुहूअं अनुभव किया हुआ। (२) प्रभूतम पहूअं बहुत।।४-६४।।
॥४-६५॥ कृगः कुण इत्यादेशो वा भवति।। कुणइ। करइ।। ___ अर्थः- संस्कृत 'कृ-करना' धातु के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'कुण' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'कर' की प्राप्ति भी जानना। जैसे-करोति कुणइ अथवा करइ-वह करता है ।।४-६५।।
काणेक्षिते णिआरः ।।४-६६।। काणेक्षितविषयस्य कृगो णिआर इत्यादेशो वा भवति।। णिआरइ। काणेक्षितं करोति।
अर्थः-कानी नजर से देखने अर्थक धातु 'कृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णिआर' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे- काणेक्षितं करोति=णिआरइ-वह कानी नजर से देखता है ।।४-६६।।
निष्टम्भावष्टम्भे णिछह-संदाणं।।४-६७।। निष्टम्भविषयस्यावष्टम्भविषयस्य च कृगो यथासंख्यं णिठुह संदाण इत्यादेशौ वा भवतः।। णिठ्ठहइ। निष्टम्भं करोति। संदाणइ। अवष्टम्भं करोति।।
अर्थः- “निश्चेष्ट करना अथवा चेष्टा रहित होना' इस अर्थक संस्कृत-धातु 'निष्टम्भ पूर्वक कृ' के स्थान पर प्राकृतं भाषा में विकल्प से 'णिठुइ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- निष्टम्भ करोति=णिठुहइ-वह निश्चेष्ट करता है अथवा वह चेष्टा रहित होता है।
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