Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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__ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 227 हुई। यों अन्य विभक्तियों के रूपों की भी वर्तमान-कृदन्त के सद्भाव में स्वयमेव कल्पना कर लेनी चाहिये। - हसती अथवा हसन्ती संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त प्रथमा विभक्ति के एकवचन के स्रीलिंग-द्योतक रूप हैं। इनके प्राकृत रूप हसइ, हसन्ती और हसमाणी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल हलन्त प्राकृत धातु 'हस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१८२ से तथा ३-१८१ से क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में प्राप्त धातु-अङ्ग 'हस्' में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राकृत प्रत्यय 'इ' और 'न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'हसन्त और हसमाण' में स्त्रीलिंग-भाव के प्रदर्शन में डीई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'हसन्ती तथा हसमाणी' की प्राप्ति और ३-२८ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग-पद 'हसई, हसन्ती और हसमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत-पद 'हसई, हसन्ती और हसमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। __ वेपमान संस्कृत के वर्तमान-कृदन्त के प्रथमा विभक्ति के एकवचन का स्त्रीलिंग-द्योतक रूप है। इसके प्राकृत-रूप वेवई, वेवन्ती और वेवमाणी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत धातु 'वेप्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त प्राकत हलन्त धात रूप'वेव में विकरण प्रत्यय'अकी प्राप्ति; ३-१८२ से तथा ३-१८१ से प्राप्तांग धातु 'वेव' में क्रम से प्रथम रूप में तथा द्वितीय-तृतीय रूपों में वर्तमान कृदन्त के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'ई' और न्त तथा माण' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-३२ से द्वितीय और तृतीय रूपों में वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त पद 'वेवन्त और वेवमाण' में स्त्रीलिंग-भाव के प्रदर्शन में 'ङी-ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वेवन्ती और वेवमाणी' रूपों की प्राप्ति; और ३-२८ से वर्तमान-कृदन्त के अर्थ में प्राप्त स्त्रीलिंग-पद 'वेवई, वेवन्ती
और वेवमाणी' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य संस्कृत प्रत्यय 'सि' का प्राकृत में लोप होकर प्राकृत-पद 'वेवई, वेवन्ती और वेवमाणी' सिद्ध हो जाते हैं। ।३-१८२।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभिघानस्वोपज्ञ शब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः॥३॥
इस प्रकार श्री हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के आठवें अध्याय का तीसरा पाद 'स्वोपज्ञ वृत्ति सहित' अर्थात् स्व-निर्मित संस्कृत-टीका-'प्राकशिका' सहित समाप्त हुआ। इसके साथ-साथ 'प्रियोदय' नामक हिन्दी व्याख्या रूप विवेचन भी तृतीय पाद का समाप्त हुआ।।
पादान्त-मंगलाचरण ऊर्ध्व स्वर्ग-निकेतनादपि तले पातालमूलादपि; त्वत्कीर्तिभ्रंमति क्षितीश्वरमणे पारे पयोधेरपि। तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभैरूच्चाव चैश्चापले
स्ते वाचंयम-वृत्तयोपि मुनयो मौनव्रतं त्याजिताः॥१॥ अर्थः- हे राजाओं में मणि-समान श्रेष्ठ राजन्! तुम्हारी यशकीर्ति ऊँचाई में तो स्वर्ग-लोक तक पहुंची हुई है और नीचे पाताल-लोक की अन्तिम-सीमा तक का स्पर्श कर रही है। मध्य-लोक में यही तुम्हारी कीर्ति पृथ्वी को घेरने वाले महासमुद्र के भी उस द्वितीय किनारे को पार कर गई है। तुम्हारी यह कीर्ति स्त्री-स्वरूप होने के कारण से स्त्री-जन-स्वभाव-जनित इसकी सुलभ चंचलता के कारण से वाणी पर नियंत्रण रखने वाले तथा वाचं-यम-वृत्ति को धारण करने वाले मुनियों को भी अपना मौन-व्रत छोड़ना पड़ रहा है। अर्थात् मौन-व्रत को ग्रहण किए हुए ऐसे बड़े-बड़े मुनिराजों को भी आपकी विशद तथा विमल कीर्ति ने बोलने के लिये विवश कर दिया है।
ॐ !! सर्वविदे नमः!!
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