Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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204 : प्राकृत व्याकरण
भविष्यामः भवितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) होहिस्सा, होहित्था, होहिमो, होस्सामो ओर होहामो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु भू भव्' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्रथम और द्वितीय रूपों में ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमशः 'हिस्सा और हित्था' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर 'होहिस्सा और होहित्था' रूप सिद्ध हो जाते हैं। __ तृतीय रूप होहिमो में सूत्र-संख्या ३-१६६ से उपर्युक्त रीति से प्राप्त धातु अंग 'हो' में भविष्यत्काल-अर्थक प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४४ से भविष्यत्काल-बोधक प्राप्तांग ‘होहि' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर होहिमो रूप सिद्ध हो जाता है। 'होस्सामो और होहामो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है।
हसिष्यामः और हसितास्मः संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप से) हसिहिस्सा और हसिहित्था होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१५७ से मूल प्राकृत धातु "हस" में स्थित अन्त्य "अ" के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हिस्सा और हित्था" का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'हसि'' में ३-१६८ से भविष्यत्काल के अर्थ में तथा तृतीय पुरुष के बहुवचन के संदर्भ में क्रमशः 'हिस्सा और हित्था' प्रत्ययों की संप्राप्ति होकर हसिहिस्सा और हसिहित्था रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-१६८।।
मेः स्सं॥ ३-१६९॥ धातोः परो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्सं वा प्रयोक्तव्यः।। होस्सा हसिस्सं। कित्तइस्स।। पक्षे। होहिमि। होस्सामि। होहामि कित्तइहिमि॥ __ अर्थः- भविष्यत्काल के अर्थ में धातुओं में तृतीय पुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय "मि'' परे रहने पर तथा भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय "हि, स्सा अथवा हा' होने पर कभी-कभी वैकल्पिक रूप से ऐसा होता है कि उक्त भविष्यत्काल-द्योतक प्रत्यय “हि स्सा-हा" के स्थान पर अर्थात् दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर धातुओं में केवल 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है। यों धातुओं में रहे हुए हि-स्सा-हा प्रत्ययों का लोप हो जाता है और 'मि' प्रत्यय का भी लोप हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार के इन लुप्त प्रत्ययों के स्थान पर केवल 'स्सं प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरूष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत्काल का रूप तैयार हो जाता है। जैसेः- भविष्यामि अथवा भवितास्मि होस्सं-मैं होऊँगा; चूँकि यह विधान वैकल्पिक-स्थान वाला है अतएव पक्षान्तर में होहिमि, होस्सामि और होहामि ‘रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:- हसिस्यामि अथवा हसितास्मि-हसिस्सं मैं हँसूगा। कीर्तयिष्यामि कित्तइस्स; पक्षान्तर में कित्तइहिमि=मैं कीर्तन करूँगा; इत्यादि। ___ इस प्रकार से वैकल्पिक-स्थित का सद्भाव भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में जानना चाहिये।
भविष्यामि अथवा भवितास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यत्कालवाचक लुट्लकार और लुट्लकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं। इनके प्राकृत-रूप (समान-रूप) से होस्सं, होहिमि, होस्सामि और होहामि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-धातु 'भू=भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' अंग-रूप की आदेश प्राप्ति; तत्पश्चात् सर्वप्रथम रूप में ४-१६९ से प्राप्तांग 'हो' में भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त-सूत्रों में कथित प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों के स्थान पर 'स्सं प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर होस्सं रूप सिद्ध हो जाता है।
शेष रूप 'होहिमि, होस्सामि तथा होहामि' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६७ में की गई है।
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