Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 95 अर्थः- संस्कृत सर्वनाम 'किम-यद्-तद्' के प्राकृत रूपान्तर ‘क जन्त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:कस्मात् कम्हा; यस्मात्-जम्हा और तस्मात् तम्हा। वैकल्पिक पक्ष का विधान होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-८ के विधान से उपर्युक्त ‘क-ज-त' सर्वनामों में 'त्तो; दो-ओ; दु-उ; हि, हिन्तो और लुक्' प्रत्ययों की भी प्राप्ति क्रम से हुआ करती है। जैसे:-कस्मात्-काओ, (कत्तो, काउ, काहि, काहिन्तो और का आदि) यस्मात् जाओ, जत्तो, जाउ, जाहि, जाहिन्तो और जा) एवं तस्मात्=ताओ, (तत्तो, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता)।
कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप कम्हा और काओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-६६ से प्राप्तांग 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डिसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप कम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(कस्मात्=) काआ में 'क' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'क' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे पञ्चमी विभक्ति एकवचन-बोधक प्रत्यय 'ओ' का सदभाव होने से दीर्घ 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'का' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कत प्रत्यय 'ङसि अस् के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप काओ भी सिद्ध हो जाता है।
यस्मात् संस्कृत पञ्चमी एवं वचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जम्हा और जाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६६ से प्राप्तांग 'ज' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से म्हा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप जम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(यस्मात्-) जाओ में 'ज' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'ज' में स्थित अन्त्य हृस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ६-८ से प्राप्तांग 'जा' में उपर्युक्त रीति से पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जाओ भी सिद्ध हो जाता है।
तस्मात् संस्कृत पञ्चमी एकवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तम्हा और ताओ होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६६ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङसि-अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होकर प्रथम रूप तम्हा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तस्मात्=) ताओ में 'त' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'त' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-८ से प्राप्तांग 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में 'दो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ताओ भी सिद्ध हो जाता है। ३-६६।।
तदो डोः ।। ३-६७॥ तदः परस्य उसे? इत्यादेशो वा भवति।। तो तम्हा।।
अर्थ:- संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के प्राकृत रूपान्तर 'त' में पञ्चमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। प्राप्त प्रत्यय 'डो' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार उक्त सर्वनाम 'त' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' स्वर का लोप हो जाता है; एवं तत्पश्चात् शेषांग हलन्त 'त्' सर्वनाम में उक्त प्रत्यय 'ओ' की संयोजना होती है। जैसे:तस्मात्=तो। वैकल्पिक पक्ष का सद्भाव होने से पक्षान्तर में सूत्र-संख्या ३-६६ के विधान से (तस्मात्=) तम्हा रूप की प्राप्ति होती हैं 'तम्हा, ताओ, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता' रूपों का भी सद्भाव जानना चाहिये। Jain Education International
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