Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 197 सूत्र-संख्या ३-१६३ में 'व्यंजनादीअ' के उल्लेख से यही समझना चाहिये कि सूत्र-संख्या ३-१६२ में वर्णित भूतकाल-द्योतक प्रत्यय 'सी, ही, हीअ' केवल स्वरान्त धातुओं के लिये ही है। इस विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
भूतकालबोधक प्रत्यय केवल स्वरान्त धातुओं के लिये तथा एकवचन एवं बहुवचन के लिये प्रथम पुरुष - सी, ही, हीअ
द्वितीय पुरूष - सी, ही, हीअ
तृतीय पुरूष - सी, ही, हीअ सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण इस प्रकार दिये गये हैं:संस्कृत रूप
प्राकृत रूपान्तर हिन्दी-अर्थ १ अकार्षीत् (आदि नव रूप तीनों पुरुषों में और तीनों कासी अथवा काही मैं अथवा हमने तूने अथवा वचनों में लुङ्लकार में
अथवा काहीअ तुमने उसने अथवा उन्होंने
किया अथवा किया था अथवा २ अकरोत् (आदि नव रूप लङलकार में)
कर चुके थे। ३ चकार (आदि नव रूप लिङलकार में) १ अस्थात् (आदि नव रूप-तीनों पुरुषों में और तीनों ठासी अथवा ठाही मैं अथवा हम; तू अथवा तुम; वचनों में लुङलकार में
अथवा ठाहीअ वह अथवा वे ठहरे; या ठहरे २ अतिष्ठत् (आदि नव रूप लङ् लकार में)
थे अथवा ठहर चुके थे। ३ तस्थौ (आदि नव रूप लिट् लकार में)
इस प्रकार तीनों लकारों में; इनके तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों (अथवा दोनों वचनों में) प्राकृत भाषा में रूपों की तथा प्रत्ययों की जैसी ही समानता होती है। इस प्रकार की रूप-रचना प्राकृत भाषा में जानना चाहिये। ___ आर्ष-प्राकृत में कुछ अन्तर कहीं-कहीं पर पाया जाता है; उसका उदाहरण इस प्रकार है:- देवेन्द्रः एषः अब्रवीत् देविन्दो इणमब्बवी-देवराज इन्द्र ऐसा बोला; इस उदाहरण में संस्कृत भूत- कालिक क्रियापद के रूप 'अब्रवीत' के स्थान पर प्राकृत में 'अब्बवी रूप प्रदान किया गया है। यह यस्तन-भूतकाल का अर्थात् लङ्लकार का रूप है और संस्कृत रूप के आधार (पर) से ही प्राकृत भाषा के वर्ण-परिवर्तन सम्बन्धित नियमों द्वारा इसकी प्राप्ति हुई है। अतएव ऐसे भूतकालिक क्रियापदों के रूपों को आर्ष प्राकृत के रूप मान लिये हैं। ____ अकार्षीत्, अकरोत् और चकार संस्कृत के भूतकालिक लकारों के प्रथमपुरुष के एकवचन के सकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत-रूपान्तर समुच्चय रूप में तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- कासी, काही और काही। इनमें सूत्र-संख्या ४-२६४ से मूल संस्कृत-धातु 'कृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'का' में संस्कृतीय भूतकालिक-लकारों के अर्थों में प्राप्त सभी पुरुषों के एकवचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कासी, काही और काहीअ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ अस्थात्, अतिष्ठत् और तस्थौ संस्कृत के अकर्मक रूप हैं। इन सभी लकारों के सभी पुरुषों के और सभी वचनों के प्राकृत-रूपान्तर समुच्चय रूप से तीन होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- ठासी, ठाही और ठाही। इनमें सूत्र-संख्या ४-१६ से मूल संस्कृत-धातु 'स्था' के स्थानापन्न रूप 'तिष्ठ्' के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-१६२ से भूतकाल के रूपों के निर्माण हेतु प्राप्तांग 'ठा' में संस्कृत भूत-कालिक-लकारों के अर्थों में प्राप्त सभी पुरुषों के एवं वचनों के द्योतक सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'सी, ही और हीअ' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर प्राकृत में 'ठा' धातु के भूतकालवाचक रूप ठासी, ठाही और ठाहिअ सिद्ध हो जाते हैं। For Private & Personal Use Only
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