Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 157 अलंकृता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत-रूप अलकिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १–१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' व्यंजन का लोपः तत्पश्चात् ४-४४८ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी अलकिआ पद आकारान्त स्त्रीलिंगात्मक होने से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का लोप होकर 'अलकिआ' प्राकृत-रूप सिद्ध हो जाता है। 'पुहवी' पद की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१६ में की गई है। ३-१३५।।
पंचम्यास्तृतीया च ।। ३-१३६॥ पंचम्याः स्थाने क्वचित् तृतीयासप्तम्यौ भवतः चोरेण बीहइ। चोराद् बिभेतीत्यर्थः।। अन्तेउरे रमिउमागओ राया। अन्तःपुराद् रन्त्वागत इत्यार्थः।।
अर्थः- कभी-कभी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत भाषा में तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- चोरात् बिभेति-चोरेण बीहइ-वह चोर से डरता है; इस उदाहरण में संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। दूसरा दृष्टान्त इस प्रकार है:- 'अन्तः पुराद्' रन्त्वा आगतः राजा-अन्तेउरे, रमिउं आगओ राया अन्तपुर में रमण करके राजा आ गया है; इस दृष्टान्त में 'अन्तःपुराद् अन्तेउरे' शब्दों में संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग देखा जा रहा है। यों अन्यत्र भी पंचमी के स्थान पर तृतीया अथवा सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाय तो वह प्राकृत भाषा में अशुद्ध नहीं माना जायगा।
चोरात् संस्कृत पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरेण है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१२६ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति और शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-१३४ के अनुसार होकर चोरेण रूप सिद्ध हो जाता है।
बीहइ क्रियापद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३४ में की गई है।
अन्तःपुरात् (द) संस्कृत की पंचमी विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तेउरे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६० से 'तः' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-७७ से 'विसर्ग-स्' हलन्त व्यंजन का लोप; १-१७७ से 'प' व्यंजन का लोप; ३-१३६ से संस्कृत पंचमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति तद्नुसार ३-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'अन्तेउर' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्तेउरे पद सिद्ध हो जाता है।
रत्वा संस्कृत का संबन्धात्म्क भूत कृदन्त का रूप है। इसका प्राकृत रूप रमिउ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'रम्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१४६ से प्राप्त धातु रूप 'रमि' में संबन्धात्मक भूत-कृदन्तार्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर प्राकृत में 'तुम् प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'तुम्' में स्थित 'त्' व्यंजन का लोप; १-२३ से प्राप्त रूप रमिउम् में स्थित अन्त्य हलन्त 'म्' के स्थान पर पूर्व में स्थित स्वर 'उ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप रमिउं सिद्ध हो जाता है।
आगतः संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप आगओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' व्यंजन का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो=ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद आगओ सिद्ध हो जाता है।
राया पद की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४९ में की गई है।।३-१३६ ।।
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