Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
184 : प्राकृत व्याकरण प्रत्यय 'एत्-ए' की प्राप्ति और ३-१३९ से णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग 'दूसे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत-क्रियापद का रूप दूसेइ सिद्ध हो जाता है।
कारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत-रूप कारावेइ (क्रिया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३४ से मूल संस्कृत धातु कृ' में स्थित अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-१५३ की वृत्ति से प्राप्तांग 'कर' में स्थित आदि 'अ' के आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय 'आवे' का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति; ३-१४९ से प्राप्तांग 'कार' में णिजन्त-बोधक प्रत्यय 'आवे' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य 'अ' के साथ में आगे आये हुए प्रत्यय 'आवे' की संधि होकर दीर्घ आकार की प्राप्ति के साथ णिजन्त-अर्थक-अंग 'करावे' की प्राप्ति और ३-१३९ से णिजन्त-अर्थक-रूप से प्राप्तांग 'करावे' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत प्रेरणार्थक वर्तमानकालीन क्रियापद का रूप कारावेइ सिद्ध हो जाता है। ___ हासितः संस्कृत का भूतकृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हासाविओ (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१५३ की वृत्ति से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि 'अकार' के आगे प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' का सद्भाव होने के कारण से'आकार' की प्राप्ति; ३-१५२ से प्राप्तांग 'हास' में आगे भूतकृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से प्रेरणार्थक-भाव निर्माण में सूत्र-संख्या ३-१४९ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'अत् एत्' आव और आवे' के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की प्राप्ति; ४-४४८ से णिजन्त अर्थक रूप से प्राप्तांग ‘हासावि' कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से कृदन्त-अर्थक प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२ से णिजन्त-अर्थ सहित भूत कृदन्तीय विशेषणात्मक रूप से प्राप्तांग अकारान्त पुल्लिग 'हासीविअ में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय सि' के स्थान पर 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद हासाविओ सिद्ध हो जाता है।
'जणो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६२ में की गई है।
श्यामलया संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप सामलीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' व्यञ्जन का लोप; १-२६० से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए तालव्य 'शा' के स्थान पर दन्त्य 'सा' की प्राप्ति; ३-३२ से प्राप्तांग 'सामला' में स्थित अन्त्य स्त्रीलिंगवाचक प्रत्यय 'आ' को 'ई' की प्राप्ति; और ३-२९ से प्राप्तांग दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग 'सामली' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=या' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग की तृतीया विभक्ति के एकवचन के रूप से प्राप्त सामलीए रूप की सिद्धि हो जाती है।।३-१५३।।
मौ वा।। ३-१४५॥ अत आ इति वर्तते। आदन्ताद्वातो ौ परे अत आत्त्वं वा भवति।। हसाम हसमि। जाणामि जाणमि। लिहामि लिहमि।। अत् इत्येव। होमि।।
अर्थः- जो प्राकृत धातु अकारान्त हैं; उनमें स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे 'म्' व्यञ्जन से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। इस प्रकार इस सूत्र का भी विधान धातुस्थ अन्त्य 'अ' को 'आ' रूप में परिणत करने के लिये ही किया गया है। उदाहरण इस प्रकार है:- हसामि-हसामि अथवा हसमि-मैं हंसता हूं; जानामि-जाणामि अथवा जाणमि=मैं जानता हूं; लिखामि लिहामि अथवा लिहमि=मैं लिखता हूं। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि अकारान्त धातुओं में स्थित अन्त्य 'अ' के परे 'म्' से प्रारंभ होने वाले प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुई है। यों-अन्यत्र भी जाना चाहिये।
प्रश्नः- 'अकारान्त-धातुओं के लिये ही ऐसा विधान क्यों किया गया है।
उत्तरः- जो धातु अकारान्त नहीं होकर अन्य स्वरान्त हैं; उनमें स्थित उस अन्त्य स्वर को 'आ' की प्राप्ति नहीं होती है; इसलिये केवल 'अकारान्त' धातुओं के लिये ही ऐसा विधान जानना चाहिये! जैसे:- भवामि-होमि=मैं होता हूँ। इस उदाहरण में प्राकृत धातु 'हो' के अन्त में 'ओ' स्वर है; तदनुसार आगे म्' से प्रारम्भ होने वाले काल-बोधक-प्रत्यय का
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org