Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 153 के दृष्टान्त इस प्रकार हैं:-धनेन लब्धः=धणस्स लद्धो-धन से वह प्राप्त हुआ है; चिरेण मुक्ता चिरस्स मुक्का-चिरकाल से वह मुक्त हुई है। तैः एतत् अनाचरितम्=तेसिं एअम् अणाइण्णं-उनके द्वारा यह आचरित नहीं हुआ है; इन उदाहरणों में धनेन के स्थान पर धणस्स का, चिरेण के स्थान पर चिरस्स का और तैः के स्थान पर तेसिं का प्रयोग यह बतलाता है कि तृतीया के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है। पंचमी के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग के उदाहरण निम्न प्रकार से हैं:- चोरात् बिभेति-चोरस्स बीहइ-वह चोर से डरता है; इतराणि लघु अक्षराणि येभ्यः पदान्तेन सहितेभ्यः इअराई लहुअक्खराइं जाण पायन्ति-मिल्ल-सहिआण, इन उदाहरणों में चोरात् के स्थान पर चोरस्स का, येभ्यः के स्थान पर जाण का और सहितेभ्यः के स्थान पर सहिआण का प्रयोग यह बतलाता है कि पंचमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है। अन्तिम उदाहरण अधूरा होने से हिन्दी अर्थ नहीं लिखा जा सका है। इसी प्रकार से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग का नमूना यों हैं:-पृष्ठे केशभार:-पिट्टीए केस भारोपीठ पर केशों का भार याने समूह है। इस उदाहर रण में पृष्ठे के स्थान पर पिट्रीए का प्रयोग यह प्रदर्शित करता है कि सप्तमी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी का प्रयोग किया गया है।
सीमाधरम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सीमाधरस्स (किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग हुआ है; तदनुसार सूत्र-संख्या ३-१० से प्राकृत रूप सीमाघर में संस्कृत प्रत्यय ङस् अस् के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सीमाधरस्स रूप की सिद्धि हो जाती है।
'वन्दे' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में को गई है। 'तिस्सा' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६४ में की गई है।
मुखम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग हुआ है; १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप मुह में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस-अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहस्स रूप सिद्ध हो जाता है। .
स्मरामः संस्कृत वर्तमानकालीन तृतीया पुरुष का बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप भरिमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-७४ से संस्कृत मूल धातु 'स्मृ-स्मर' के स्थान पर 'भर' की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से हलन्त व्यंजनान्त धातु 'भर्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे तृतीय पुरुष-बोधक बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से प्राप्त धातु रूप 'भरि' में वर्तमानकालीन तृतीय पुरुष-बोधक बहुवचनान्त प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति होकर भरिमो रूप सिद्ध हो जाता है।
धनेन संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप धणस्स है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी-विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'धन' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप 'धण' में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणस्स रूप की सिद्धि हो जाती है।
लब्धः संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचनान्त विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप लद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से हलन्त व्यंजन 'ब्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'लद्ध' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति एवं प्राप्त प्रत्यय 'डो' में 'ड्' की इत्संज्ञा होने से प्राप्त प्राकृत शब्द 'लद्ध' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का इत्संज्ञात्मक लोप होकर तत्पश्चात् शेष प्रत्यय रूप 'आ' की प्राप्ति हलन्त शब्द 'लद्ध' में संध्यात्मक समावेश होकर प्राकृत रूप लद्धा सिद्ध हो जाता है।
चिरेण संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप चिरस्स है। इसमें सूत्र-संख्या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org