Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 135 'वे' अंगरूपों की आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का सद्भाव और ३-९ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्तो' सिद्ध हो जाते हैं। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है।
द्वयोः संस्कृत षष्ठी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोण्ह' और 'वेण्ह' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से मूल संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंगरूपों की आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूप का सद्भाव और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' ओर 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हं' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोण्ह' और 'वेण्ह' सिद्ध हो जाते हैं। 'धणं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है।
द्वयोः संस्कृत सप्तमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप दोसु और वेसु होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से 'द्वि' के स्थान पर 'दो' और 'वे' अंग रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का सद्भाव ओर ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप 'दोसु' और 'वेसु' सिद्ध हो जाते हैं। "ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।।३-११९।।
दुवे दोण्णि वेण्णि च जस्-शसा।३-१२०॥ जस् शस्भ्यां सहितस्य द्वेः स्थाने दुवे दोण्णि वेण्णि इत्येते दो वे इत्येतो च आदेशा च भवन्ति।। दुवे दोण्णि वेण्णि दो वे ठिआ पेच्छ वा। हस्वः संयोगे (१-८४) इति हस्वत्वे दुण्णि विण्णि।।
अर्थः-संस्कृत संख्या-वाचक शब्द 'द्वि' के प्राकृत-रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय शस्' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द 'द्वि' और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में समान रूप से और क्रम से पांच आदेश-रूपों की प्राप्ति होती है। वे आदेश-प्राप्त पांचों रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (प्रथमा) द्वौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और वे। (द्वितीया) द्वौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और वे। प्रथमा का उदाहरण इस प्रकार है:- द्वौ स्थितौ दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो, वे ठिआ अर्थात् दो ठहरे हुए है। द्वितीया विभक्ति का उदाहरणः- द्वौ पश्य दुवे, दोण्णि वेण्णि, दो,वे पेच्छ अर्थात् दो की देखो। सूत्र-संख्या १-८४ में ऐसा विधान प्रदर्शित किया गया है कि 'संस्कृत से प्राप्त प्राकृत-रूपान्तर में यदि दीर्घ स्वर के आगे संयुक्त व्यञ्जन की प्राप्ति हो जाय तो वह दीर्घ स्वर हस्व स्वर में परिणत हो जाया करता है; तदनुसार इस सूत्र से प्राप्त दोण्णि और वेण्णि' में दीर्घ-स्वर 'ओ' के स्थान पर हस्व 'उ' की प्राप्ति तथा दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर उक्त पाँच आदेश-प्राप्त रूपों के अतिरिक्त 'द्वौ' के प्राकृत रूपान्तर दो और रूप बन जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-(द्वौ=) दुण्णि ओर विण्णि। यों प्रथमा और द्वितीया में 'द्वौ' के कुल सात प्राकृत रूप हो जाते हैं।
द्वौ संस्कृत प्रथमा द्विवचनान्त और द्वितीया द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप सात होते हैं:-दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो, वे, दुण्णि और विण्णि। इन में से प्रथम पाँच में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३-१२० से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' और 'शस्' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के ही स्थान पर उक्त पाँचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से इन पाँचों रूपों 'दुवे, दोण्णि, वेण्णि, दो और 'वे' की सिद्धि हो जाती है। शेष दो रूपों में सूत्र-संख्या १-८४ से पूर्वोक्त द्वितीय-तृतीय रूपों में स्थित 'ओ' और 'ए' स्वरों के स्थान पर क्रम से हस्वस्वर 'उ' और 'इ' की प्राप्ति होकर छटे-सातवें रूप दुण्णि और विण्णि की भी सिद्धि हो जाती है।
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