Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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18 : प्राकृत व्याकरण सिद्ध हो जाता है। __ अग्नीन् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप अग्गी और अग्गिणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से शेष 'ग्' को द्वित्व 'ग्ग्' को प्राप्ति; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' की प्राप्ति होकर लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के कारण अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई की प्राप्ति होकर अग्गी रूप सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अग्नीन्-) अग्गिणो में 'अग्गि' तक की साधनिका उपर्युक्त रूप के समान और ३-२२ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर द्वितीय रूप अग्गिणो भी सिद्ध हो जाता है।
वायून् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वाऊ और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'अन्त्य स्वर को दीर्घता पूर्वक 'न्' की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'शस्' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वाऊ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (वायून्-) वाउणा में २-७८ से 'य् का लोप और ३-२२ से शेष रूप 'वाऊ' में द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर द्वितीय रूप वाउणो भी सिद्ध हो जाता है। वच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४ में की गई है ।।३-२०।।
वो तो डवो ॥३-२१।। उदन्तात्परस्य जसः पुंसि डित् अवो इत्यादेशौ वा भवति।। साहवो । पक्षे। साहओ साहउ। साहू। साहुणो। उत इति किम्। वच्छा ।। पुंसीत्येव। धेणू। महूइं।। जस् इत्येव साहूणो पेच्छ।। . अर्थः- प्राकृत उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्ययः जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डवो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डवो' में 'ड' इत्संज्ञक होने से शेष प्राप्त प्रत्यय 'अवो' के पूर्व में उकारान्त शब्दों में अन्त्य स्वर 'उ' की इत्संज्ञा होकर इस 'उ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् 'अवो' प्रत्यय की संयोजना होती है। जैसे- साधवः-साहवो। वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र-संख्या ३-२० से (साधवः=) साहओ और साहउ रूप भी होते हैं। सूत्र-संख्या ३-४ से (साधवः=) साहू रूप भी होता है; इसी प्रकार से सूत्र-संख्या ३-२२ में (साधवः=) साहूणो रूप भी होता है। यों प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'साहु' के पाँच रूप हो जाते हैं। जो कि इस प्रकार है-(साधवः=) साहवो, साहओ, साहउ, साहू और साहुणो।।
प्रश्नः- 'उकारान्त' शब्दों में ही प्रथमा बहुवचन में 'अवो' आदेश की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तर:- क्योंकि 'अकारान्त' अथवा 'इकारान्त' में प्रथमा बहुवचन में अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय की उपलब्धि नहीं है एवं केवल उकारान्त में ही 'अवो' प्रत्यय की उपलब्धि है; अतएव ऐसा विधान बनाना पड़ा है कि केवल प्राकृत उकारान्त शब्दों में ही प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'अवो' आदेश प्राप्त प्रत्यय विशेष होता है। जैसे:-वृक्षान् वच्छा। यों वच्छो रूप का अभाव सिद्ध होता है।
प्रश्नः-'उकारान्त पुल्लिंग' में ही 'अवो' प्रत्यय अधिक होता है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः-उकारान्त स्त्रीलिंग और नपुसंकलिंग वाले भी शब्द होते हैं; ऐसे शब्द उकारान्त होते हुए भी इनमें 'पुल्लिगत्व' का अभाव होने से अवो' प्रत्यय का इनके लिये भी अभाव होता है?; ऐसा विशेष तात्पर्य बतलाने के लिये ही 'पुल्लिगत्व' का विशेष विधान किया जाता है। जैसेः- धेनवः धेणू और मधूनि महूइं। ये उदाहरण उकारान्तात्मक होते भी पुल्लिंगात्मक
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