Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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16 : प्राकृत व्याकरण
उकारान्त पुल्लिंग प्राकृत शब्दों में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'डउ' और 'डओ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'डउ' और 'डओ' में स्थित में 'इ' इत्संज्ञक होने से शब्दान्त्य 'इ' और 'उ' की इत्संज्ञा होकर इन 'इ' और 'उ' का लोप हो जाता है तथा आदेश प्राप्त प्रत्ययों का रूप भी. 'अउ' और 'अओ' रह जाता है। जैसे- अग्नयः = अग्गउ और अग्गओ । वायवः तिष्ठन्ति = वायउ वायओ चिट्ठन्ति । वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र - संख्या ३ - २२ के अनुसार (अग्नयः = ) अग्गिणो और (वायवः = ) वाउणो रूप भी होते है । 'अउ' और 'अओ' तथा 'णो' आदेश-प्राप्ति के अभाव में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन अकारान्त पुल्लिंग शब्द रूप के समान ही सूत्र- संख्या ३-४ से 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और लोप- अवस्था प्राप्त होकर तथा सूत्र - संख्या ३-१२ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होकर 'अग्गी' और 'वाऊ' रूप भी होते हैं। इस प्रकार इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में चार-चार रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- अग्नयः - अग्गड, अग्गओ, अग्गिणो और अग्गी । वायवः- वायउ, वायओ, वाउणो और वाऊ ।।
प्रश्नः - इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ही 'अऊ' और 'अओ' ओदश - प्राप्ति होती है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- स्त्रीलिंग वाचक और नपुसंकलिंग वाचक इकारान्त, उकारान्त शब्दों में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति का अभाव है; अतः पुल्लिंग शब्दों में ही इन 'अउ' और 'अओ' का सद्भाव होने से 'पुंसि' ऐसे शब्द का मूल - सूत्र में उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- बुद्धयः- बुद्धीओ; धेनवः =धेणूओं; दधीनि-दहीइं और मधूनि = महू इत्यादि । इन उदाहरणों में पुल्लिंगत्व का अभाव होने से और स्त्रीलिंगत्व का तथा नपुसंकलिंगत्व का सद्भाव होने से 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्त प्रत्ययों का अभाव प्रदर्शित किया गया है यों सूत्र में लिखित 'पुसि' शब्द का तात्पर्य- विशेष जान लेना चाहिये।
प्रश्नः- प्रथमा विभक्ति बोधक 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति पर ही 'अउ' और 'अओ' आदेशकी प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'जस्' के अतिरिक्त द्वितीया विभक्ति बोधक 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अथवा अन्य विभक्तिबोधक प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर भी उन प्रत्ययों के स्थान पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; ऐसा तात्पर्य प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'जसो ' ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- अग्नीन् (अथवा ) वायून् पश्यति = अग्गि (अथवा ) अग्गिणो (और) वाऊ (अथवा ) वाउणो पेच्छइ अर्थात् व अग्नियों को (अथवा ) वायुओं को देखता है। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्तिबोधक प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति का अभाव प्रदर्शित करते हुए यह प्रतिबोध कराया गया है कि 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; न कि 'शस्' आदि अन्य प्रत्ययों के स्थान पर ।
प्रश्न:- इस सूत्र की वृत्ति में आदि में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' जैसे शब्दों के उल्लेख करने का क्या तात्पर्य- विशेष
है?
उत्तरः-‘जस्' प्रत्यय की प्राप्ति 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों के अतिरिक्त 'अकारान्त' आदि अन्य शब्दों में भी होती है; अतः सूत्र - संख्या ३ - २० से 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर होने वाली 'अउ' और 'अओ' आदेश प्राप्ति केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों में ही होती है। अकारान्त आदि शब्दों में नहीं हुआ करती है। ऐसी विशेषता प्रकट करने के लिये ही वृत्ति के प्रारंभ में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' पदों की संयोजना करनी पड़ी है। जैसे :- वृक्षाः = वच्छा। इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि जैसे अग्गर और अग्गओ तथा वायउ और वायओ रूप बनते हैं; वैसे 'वच्छउ' और 'वच्छओ' रूप प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नहीं बन सकते हैं। इस प्रकार इस सूत्र में और वृत्ति में लिखित 'पुंसि'; 'जसो' और 'इदुतः ' पदों की विशेषता जाननी चाहिये।
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