Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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82 : प्राकृत व्याकरण की इत्संज्ञा होकर लोप; तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त 'पाउस' में पूर्वोक्त 'ए' प्रत्यय की संयोजना होकर पाउसे रूप सिद्ध हो जाता है।
उपगतायाम् संस्कृत सप्तम्यन्त स्त्रीलिंगात्मक एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप-(प्रावृट के प्राकृत में पुल्लिग हो जाने के कारण से एवं प्रावट के साथ इसका विशेषणात्मक संबंध होने के कारण से) उवगयम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उवगयम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।
अप्पणिआ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'य' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८४ में की गई है। 'विअड्डि' (अथवा प्रथमान्त एकवचन रूप विअड्डी) की सिद्धि सूत्र-संख्या २-३६ में की गई है।
खानिता संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप खाणिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और १-१७७ से 'त्' का लोप होकर खाणिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अप्पणइआ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४ में की गई है। 'अप्पाणण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५६ में की गई है। ३-५७।।
अतः सर्वादेर्डेर्जसः ।। ३-५८॥ सर्वादेरदन्तात् परस्य जसः डित् ए इत्यादेशो भवति।। सव्वे। अन्ने। जे। ते। के। एक्के। कयरे। इयरे। एए।। अत इति किम्। सव्वाओ रिद्धीओ।। जस इति किम् सव्वस्स।। __ अर्थः- (सर्व-सव्व) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे' प्रत्यय की (आदेश) प्राप्ति होती है। प्राप्त प्रत्यय 'डे' में 'ड्' इत्संज्ञक है; तदनुसार अकारान्त सर्वनामों के अंग रूप में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर उक्त अन्त्य 'अ' का लोप हो जाता है एवं तत्पश्चात् प्राप्तांग हलन्त रूप में उक्त प्रथमा बहुवचन (बोधक) प्रत्यय 'ए' की संयोजना होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- सर्वे-सव्वे। अन्ये-अन्ने। ये-जे। ते-ते। के-के। एके-एक्के। कतरे कयरे। इतरे-इअरे और ऐते-एए; इत्यादि।।
प्रश्न;- मूल सूत्र में 'अकारान्त' ऐसा विशेषण क्यों दिया गया है?
उत्तरः- सर्वनाम अकारान्त होते हैं एवं आकारान्त भी होते हैं; तदनुसार प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती है; आकारान्त सर्वनामों में नहीं; इस विधि-विधान को व्यक्त करने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये ही 'अकारान्त' ऐसा विशेषण मूल सूत्र में संयोजित किया गया है जैसे:- सर्वाः ऋद्धयः-सव्वाओ रिद्धीओ; इस उदाहरण में प्रयुक्त 'सव्वा' सर्वनाम अकारान्त नहीं होकर आकारान्त है; तदनुसार इसमें अधिकृत सूत्र-संख्या ३-५८ के विधान से प्रथमा बहुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं होती है। 'जस्' के स्थान पर डे-ए प्रत्यय की संयोजना केवल अकारान्त सर्वनामों में ही होती है; अन्य में नहीं; इस सिद्धान्त को प्रकट करने के लिये ही मूल सूत्र में 'अकारान्त' विशेषण का प्रयोग करना पड़ा है।
प्रश्नः- 'जस्' ऐसा प्रत्ययात्मक उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर:- अकारान्त सर्वनामों में केवल प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ही संस्कृत प्रत्यय 'जस' के स्थान पर ही प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना होती है; अन्य किसी भी प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय की संयोजना नहीं होती है; इस विशेषतापूर्ण तात्पर्य को समझाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना पड़ा हैं। जैसे:सर्वस्य-सव्वस्स। इस उदाहरण में षष्ठी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में
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