Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 2
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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84 : प्राकृत व्याकरण
सर्वस्य संस्कृत षष्ठी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वस्स होता है। इसमें मूल-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस अस्' के स्थान पर प्राकृत में संयुक्त 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वस्स रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५८||
ः स्सि-म्मि-त्थाः ।। ३-५९॥ सर्वादेरकारात् परस्य डेः स्थाने स्सि म्मि त्थ एते आदेशा भवन्ति। सव्वस्सि। सव्वम्मि। सव्वत्थ।। अन्नस्सि। अन्नम्मि। अन्नत्थ।। एवं सर्वत्र।। अत इत्येव। अमुम्मि।।
अर्थः- सर्व (-सव्व) आदि अकारान्त सर्वनामों के प्राकृत रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय "डि-इ' के स्थान पर क्रम से-(एवं वैकल्पिक रूप से) "स्सि'-म्मि-त्थ ये आदेश प्राप्त रूप प्रत्यय प्राप्त होते हैं। जैसे:सर्वस्मिन् सव्वस्सि अथवा सव्वम्मि अथवा सव्वत्थ। अन्यस्मिन् अन्नस्मि अथवा अन्नम्मि अथवा अन्नत्था इसी प्रकार से अन्त्य अकारान्त सर्वनामों के संबंध में भी जानकारी कर लेना चाहिये।
प्रश्नः- 'अकारान्त' सर्वनामों में ही 'ङि=इ' के स्थान पर 'स्सि-म्मि-त्थ' आदेश प्राप्ति हुआ करती है, ऐसा क्यों कहा गया है?
उत्तरः- अकारान्त सर्वनामों के अतिरिक्त उकारान्त आदि अवस्था प्राप्त सर्वनामों में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर 'स्सि-म्मि-स्थ' आदेश प्राप्त-प्रत्ययों की प्राप्ति नहीं होती है; किन्तु केवल 'ङि-इ' के स्थान पर 'म्मि' प्रत्यय की ही आदेश प्राप्ति होती है; इस विधि-विधान को प्रकट करने के लिए ही 'अकारान्त सर्वनाम ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- अमुष्मिन् अमुम्मि; इत्यादि।
सर्वस्मिन् संस्कृत सप्तमी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप 'सव्वस्सि' सव्वम्मि और सव्वत्थ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-५९ से प्राप्तांग 'सव्व' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'ङ-इ' के स्थान पर कम से (एवं वैकल्पिक रूप से) 'स्सिं-म्मि-त्थ' प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति होकर क्रम से तीन रूप-सव्वस्सिं, सव्वम्मि और सव्वत्थ सिद्ध हो जाते है। __ अन्यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप हैं। इसके प्राकृत रूप-अन्नस्सिं, अन्नम्मि और अन्नत्थ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-७९ से प्राप्तांग 'अन्न' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर क्रम से-(वैकल्पिक रूप से-) 'स्सि-म्मि-त्थ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप- अन्नस्सि, अन्नम्मि और अन्नत्थ सिद्ध हो जाते हैं।
अमुष्मिन संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप अमुम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'अद्स' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; ३-८८ से 'द्' के स्थान पर 'मु' आदेश की प्राप्ति और ३-११ से प्राप्तांग 'अमु' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५९।।
न वानिदमेतदो हिं।। ३-६०।। इदम् एतद्वर्जितात्सर्वादेरदन्तात्परस्य डेः हिमादेशो वा भवति।। सव्वहिं। अन्नहि। कहिं। जहिं। तहिं।। बहुलाEि कारात् किंयत्तद्भ्यः स्त्रियामपि। काहिं। जाहिं। ताहिं।। बाहुलकादेव किंयत्तदोस्य-मामि (३-३३) इति डीनास्ति।। पक्षे। सव्वस्सि। सव्वम्मि। सव्वत्थ। इत्यादि।। स्त्रियां तु पक्षे। काए। कीए। जाए। जीए। ताए तीए।। इदमेतद्वर्जनं किम्। इमस्सि। एअस्सि॥
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